जैन साधु – आडंबर या वास्तविक संत?

नितिन जैन

पलवल (हरियाणा), मोबाइल फोन: 9215635871

आज का समाज अक्सर यह भ्रम पालता है कि केवल कपड़े का चोला पहनना या नग्न रहना ही किसी को संत बना देता है. लेकिन सच्चाई यह है कि असली संत वह है जिसका अहंकार, अज्ञान और भ्रम का चोला उतर चुका हो. केवल बाहरी रूप और दिखावा ही संतत्व नहीं है. मन, वाणी और कर्म की शुद्धता ही वास्तविक संतत्व की पहचान है.

वर्तमान समय में जैन साधुओं के हालात चिंताजनक हैं. कई साधु केवल दिखावे, भव्यता और प्रभाव के लिए साधना करते दिखते हैं. उनका उद्देश्य समाज की भलाई या आत्मिक उन्नति नहीं, बल्कि अनुयायियों और समाज के मन में अपनी प्रतिष्ठा बनाना और बढ़ाना होता है. आज कुछ साधु सभा और चोले की भव्यता, महंगे प्रतीकों और दिखावटी कर्मकांडों में उलझे रहते हैं. उनका आचरण, जो कि अहंकार और प्रभाव के साथ जुड़ा होता है, असली संतत्व से बहुत दूर है.

आगम प्रमाण:

अष्टकवर्गसूत्र (दिगंबर) में स्पष्ट कहा गया है कि “सत्य, अहिंसा, संयम और तप का पालन करना ही संतत्व की पहचान है, केवल शरीर की अवस्था या वस्त्र की अवस्था से संतत्व नहीं आता.”

उपदेशसूत्र (श्वेतांबर) में लिखा है: “जो मन, वाणी और कर्म में अहंकार, द्वेष और लोभ से मुक्त है, वही वास्तविक साधु है. केवल दिखावे के लिए तप करना या चोला पहनना किसी को संत नहीं बनाता.”

तथागतचरित्र में भी कहा गया है कि “संतत्व का माप उसके बाहरी आचरण या भव्य साधना में नहीं, बल्कि उसके अंदर के विवेक, दया और सत्यनिष्ठा में है.”

आजकल के कुछ साधुओं में आडंबर और दिखावे की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. उदाहरण के तौर पर, अत्यधिक चोले, गहनों या प्रतीकात्मक चीजों का प्रदर्शन, बड़ी-बड़ी सभा में ध्यान केंद्रित करना, महंगी सुविधाओं का इस्तेमाल, और अनुयायियों पर अनावश्यक दबाव डालना. इन सभी से संतत्व का वास्तविक अर्थ खो जाता है.

संत का वास्तविक कर्तव्य समाज को जागरूक करना, धर्म और मूल सिद्धांतों के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना और अपने व्यवहार द्वारा अनुयायियों को सही दिशा दिखाना होना चाहिए. यदि साधु केवल दिखावे के लिए ब्रह्मचर्य या कठोर नियमों का पालन करते हैं, लेकिन भीतर से अहंकार और भ्रम से मुक्त नहीं हैं, तो यह केवल समाज और अनुयायियों को धोखा देने जैसा है.

आगम प्रमाण:

श्रेयानसूत्र (दिगंबर) में कहा गया है: “संत का मूल्य उसकी तपस्या में नहीं, बल्कि उसके कर्मों और समाज के प्रति सेवा में निहित है. जो केवल दिखावे के लिए कठोर नियम अपनाता है, वह भ्रम में है.”

सिद्धान्तसार (श्वेतांबर) में स्पष्ट है: “ब्रह्मचर्य, तप और साधना तभी वास्तविक फल देती है जब व्यक्ति अपने मन और विचार से पवित्र हो. बिना अहंकार और लोभ से मुक्ति के साधना केवल आडंबर है.”

इसलिए आज की पीढ़ी को यह जागरूक करना जरूरी है कि दिखावे और आडंबर में फंसे साधु समाज के लिए खतरा बन सकते हैं. केवल बाहरी साधना और चोला पहनने से धर्म का मूल उद्देश्य अधूरा रह जाता है. असली संत वह है जो अपने अहंकार और भ्रम का चोला उतार चुका हो, जो सच्चाई, संयम और करुणा का उदाहरण अपने जीवन से देता हो, और समाज के कल्याण के लिए कार्य करता हो.

जैन धर्म के शास्त्र भी बार-बार यही बताते हैं कि केवल बाहरी रूप और साधना से संतत्व नहीं आता. असली संत वह है जो आत्मा की शुद्धि, समाज सेवा और धर्म के मार्ग पर अडिग रहने के लिए पहचाना जाए.

इसलिए समय है कि हम सतर्क हों, आडंबर और दिखावे में उलझे साधुओं को पहचानें और असली संतत्व की महत्ता को समझें. तभी हम अपने धर्म और समाज को सही दिशा में ले जा सकते हैं और असली संतत्व के प्रकाश को जीवित रख सकते हैं.

नितिन जैन श्री पार्श्व पद्मावती धाम, पलवल (हरियाणा) के , संयोजक व अखिल भारतीय अग्रवाल संगठन, के जिलाध्यक्ष हैं.

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