अहिंसा : नियम की नहीं, समझ की जरूरत

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अशोका ऊ सालेचा

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आज के समय में हम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे महान सिद्धांतों का पालन तो कर रहे हैं, लेकिन अक्सर बिना विवेक के. हमारा पालन अधिकतर पाप के डर से या पुण्य पाने की इच्छा से प्रेरित होता है. यानी हमारे आचरण की जड़ में आत्मबोध नहीं, बल्कि भय और स्वार्थ छिपा रहता है.

शायद भगवान महावीर को आने वाले समय की इस स्थिति का आभास था. इसलिए उन्होंने केवल अहिंसा की नहीं, बल्कि पंचमहाव्रत की बात कही. वास्तव में यदि मनुष्य विवेकपूर्वक जीवन जिए, तो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य अपने आप उसके जीवन में उतर आते हैं. विवेक के बिना किए गए व्रत केवल बाहरी आडंबर बनकर रह जाते हैं.

आज हम अहिंसा को केवल जीव-रक्षा तक सीमित कर देते हैं. हमें लगता है कि किसी जीव को बचा लेना ही अहिंसा है. लेकिन सच्चाई यह है कि हमारे भीतर इतना सामर्थ्य ही नहीं है कि हम किसी जीव को वास्तव में बचा सकें. यह सोचना भी एक प्रकार का अहंकार है. प्रकृति में अपने नियम चलते हैं. प्रकृति में परिवर्तन होते हैं, जन्म होता है और मृत्यु भी होती है. यह हिंसा नहीं है. जन्म हुआ है तो मृत्यु निश्चित है, क्योंकि आत्मा अमर है, शरीर नहीं.

हिंसा का मूल कारण हमारे भीतर पैदा होने वाला राग है

वास्तविक हिंसा का मूल कारण बाहरी क्रिया नहीं, बल्कि हमारे भीतर पैदा होने वाला राग है. जब हमारे मन में किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति को पाने की तीव्र इच्छा जन्म लेती है, तभी हम उसे पाने के लिए क्रिया करते हैं. किसी इच्छा को पूरा करने के लिए की गई हर क्रिया में कहीं न कहीं हिंसा छिपी रहती है. और जब हम अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाते, तब मन में जो असंतोष, क्रोध, उद्वेग और द्वेष पैदा होता है, वही सूक्ष्म हिंसा है.

यदि हमारे भीतर विवेक जाग्रत हो, तो राग की उत्पत्ति ही नहीं होगी. और जहां राग नहीं होगा, वहां हिंसा भी नहीं होगी. इसलिए अहिंसा का वास्तविक मार्ग बाहरी संयम से नहीं, बल्कि आंतरिक विवेक से होकर गुजरता है.

यह कहना भी सही नहीं होगा कि किसी जीव को मारने में हिंसा नहीं होती. निश्चित रूप से होती है. लेकिन यह भी समझना आवश्यक है कि कोई भी जीव की हत्या बिना स्वार्थ के नहीं करता. वह स्वार्थ सुख के रूप में हो सकता है, धन के रूप में हो सकता है या अहंकार के रूप में. जब तक स्वार्थ है, तब तक हिंसा की संभावना बनी रहती है.

महाभारत में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध करने का उपदेश भी इसी सत्य की ओर संकेत करता है. अर्जुन के मन में उत्पन्न हुआ राग, मोह और भ्रम देखकर ही कृष्ण ने उसे कर्म करने का मार्ग बताया. वहां युद्ध बाहरी हिंसा नहीं, बल्कि आंतरिक राग से मुक्ति का साधन था.

इसलिए आवश्यक है कि हम अहिंसा को केवल आचरण या नियम के रूप में न अपनाएं, बल्कि विवेक के साथ जीवन में उतारें. जब विवेक जागेगा, तब अहिंसा केवल व्यवहार नहीं, बल्कि हमारी स्वाभाविक अवस्था बन जाएगी.

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