वेगन दलीलें और जैन सिद्धांत

जैन सिद्धांत और विगई Vigai in Jainism

डॉ. धिरज जैन, दुबई

वेगन दलीलें, जैन सिद्धांत और “विगई” का चुनिंदा इस्तेमाल : एक लेखाजोखा

पिछले कुछ सालों में वेगन लोगों और जैन धर्म को मानने वालों के बीच, खासकर दूध और डेयरी चीज़ों को लेकर, बातचीत और बहस काफ़ी बढ़ी है. कई वेगन जैन धर्म की बातों—खासतौर पर विगई की धारणा—का सहारा लेकर कहते हैं कि जैनों को दूध, दही, घी और दूसरी डेयरी चीज़ें छोड़ देनी चाहिए. लेकिन यही विगई तेल, शक्कर और गुड़ जैसी चीज़ों पर भी रोक या संयम की बात करती है. तब सवाल उठता है कि अगर वेगन लोग जैन दर्शन को नैतिक आधार बनाते हैं, तो वे पूरा ढांचा क्यों नहीं अपनाते?

यह लेख न तो वेगनवाद के खिलाफ है और न ही डेयरी के पक्ष में. इसका मक़सद बस यह समझना है कि कैसे दार्शनिक विचारों को कभी-कभी अपनी सुविधा के हिसाब से लिया जाता है, और यह भी कि सही संवाद तभी हो सकता है जब बात पूरे संदर्भ में रखी जाए.

विगई का असली मतलब

जैन धर्म में विगई उन चीज़ों को कहा जाता है जिनका सेवन इसलिए ठीक नहीं माना जाता, क्योंकि उनमें सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी होती है या उन्हें बनाने की प्रक्रिया में बहुत बारीक स्तर पर हिंसा होती है. परंपरागत रूप से कई जैन सिर्फ जानवरों की हिंसा से ही नहीं, बल्कि सबसे छोटे जीवों को भी नुकसान न पहुंचे—इस भावना से कुछ चीज़ों से दूरी रखते हैं.

इस सोच के तहत जिन चीज़ों से बचने या संयम रखने की बात कही गई है, उनमें शामिल हैं:

  • दूध, दही, घी
  • तेल
  • शक्कर
  • गुड़
  • और कुछ परंपराओं में, संप्रदाय के अनुसार, कुछ फल और सब्ज़ियां भी

इस तरह विगई सिर्फ डेयरी तक सीमित नहीं है, बल्कि अहिंसा की बड़ी सोच का हिस्सा है.

जैन धर्म का ज़िक्र करते समय वेगन सिर्फ डेयरी पर क्यों ज़ोर देते हैं?

Dairy Products

जब वेगन लोग जैन धर्म की बात करते हैं, तो उनका ध्यान ज़्यादातर डेयरी पर होता है. वजह साफ़ है—आज की कमर्शियल डेयरी इंडस्ट्री में जानवरों के साथ हिंसा और शोषण खुलकर सामने आता है. बछड़ों को मां से अलग करना, ज़रूरत से ज़्यादा नर बछड़ों का कष्ट झेलना—ये सब बातें अहिंसा के बिल्कुल खिलाफ हैं. चूंकि वेगनवाद की जड़ में पशु-शोषण का विरोध है, इसलिए डेयरी उसका मुख्य मुद्दा बन जाती है.

लेकिन विगई वेगन सोच की बुनियाद नहीं है. वेगनवाद एक आधुनिक नैतिक सोच है, जो जानवरों के अधिकार, उनकी संवेदनशीलता और क्रूरता के विरोध पर टिकी है, न कि सूक्ष्म जीवों की हिंसा पर. तेल, शक्कर या गुड़ में सीधे तौर पर जानवरों की हिंसा नहीं होती, इसलिए वेगन आमतौर पर इन्हें नहीं छोड़ते—जब तक कि बनाने की प्रक्रिया में पशु-उत्पाद न इस्तेमाल हुए हों.

यानी वेगन लोग विगई का हवाला वहीं देते हैं जहां वह उनकी अपनी नैतिक सोच से मेल खाता है, न कि इसलिए कि वे जैन दर्शन को पूरी तरह अपना रहे हों.

चुनिंदा उद्धरण की दिक्कत

जब विगई के सिर्फ डेयरी से जुड़े हिस्से ही सामने रखे जाते हैं, तो यह जैन दर्शन के चुनिंदा इस्तेमाल जैसा लगता है. इससे उन जैनों को अजीब लग सकता है, जो अपने सिद्धांतों को पूरी तरह, समग्र रूप में देखते हैं.

धार्मिक विचारों को चुनकर इस्तेमाल करने से दो बड़ी समस्याएं पैदा होती हैं:

  • जैन शिक्षाओं की गहराई और बारीकियां खो जाती हैं.
  • एक दोहरा मापदंड बन जाता है, जहां अपने तर्क के काम की बातें ही उठाई जाती हैं और बाकी नज़रअंदाज़ हो जाती हैं.

डेयरी का विरोध करना बिल्कुल ठीक है. लेकिन अगर उसके लिए जैन सिद्धांतों को आधार बनाया जाए, तो उनका पूरा संदर्भ मानना भी ज़रूरी है.

अलग सोच, अलग नज़र

यह समझना ज़रूरी है कि जैन धर्म और वेगनवाद एक जैसी चीज़ें नहीं हैं.

जैन धर्म एक आध्यात्मिक रास्ता है, जो कर्म, शुद्धता, हर स्तर पर अहिंसा और आत्मा की मुक्ति से जुड़ा है.

वेगनवाद एक नैतिक आंदोलन है, जिसका मक़सद जानवरों को होने वाली तकलीफ़ कम करना है और जो आधुनिक विचारों—जैसे अधिकार और कल्याण—पर आधारित है.

दोनों में कई जगह मेल है, लेकिन दोनों एक नहीं हैं. इसलिए यह स्वाभाविक है कि वेगन विगई के सारे नियम न अपनाएं, और जैन भी वेगन सोच के हर पहलू को न मानें. यह याद रखना जरुरी है की वेगनिज़्म जैनिज़्म नहीं है, और ना ही जैनिज़्म वेगनिज़्म है.

आगे का बेहतर और सम्मानजनक रास्ता

वेगन और जैनों के बीच बातचीत तब ज़्यादा सही और फलदायक हो सकती है, जब उसमें आपसी सम्मान हो. धर्म की बातों को अपनी सुविधा से चुनने के बजाय, चर्चा साझा मूल्यों पर हो सकती है, जैसे:

  • करुणा
  • नुकसान कम करने की कोशिश
  • खाने को लेकर सजगता
  • आज की खेती और उत्पादन प्रणालियों की समझ

वेगन जैन दर्शन की गहराई को मान सकते हैं, और जैन वेगन द्वारा उठाए गए नैतिक सवालों पर सोच सकते हैं—बिना यह उम्मीद किए कि कोई भी पक्ष दूसरे की पूरी सोच अपना ले.

सिर्फ डेयरी के मामले में विगई का ज़िक्र करना भले असंगत लगे, लेकिन इसकी वजह यही है कि वेगन नैतिकता और जैन सिद्धांत अलग-अलग दार्शनिक ज़मीन पर खड़े हैं. अगर इन फ़र्क़ों को समझ लिया जाए, तो बातचीत ज़्यादा साफ़, ईमानदार और सम्मानजनक हो सकती है.

आख़िरकार दोनों का मक़सद एक ही है—नुकसान कम करना. और यह बातचीत तभी मायने रखती है, जब वह साफ़ समझ, सच्चाई और पूरे संदर्भ के साथ हो, न कि चुनिंदा व्याख्या के साथ.

++++

डॉ धिरज जैन एक विचारक और एक्टिविस्ट है. वह पहले एक वेगन थे, और वेगनिज्म के प्रचारक थे. लेकिन अब वह वेगन नहीं है, और आजकल वह अपने अनुभवों के और शोधकार्य के आधार पर No More Vegan यह पुस्तक लिख रहें हैं.

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