डॉ धिरज जैन, दुबई
आज जब जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संकट और पशु-अधिकारों की चर्चा होती है, तो भोजन का सवाल अपने-आप सामने आ जाता है. क्या हम क्या खाते हैं, इसका असर सिर्फ़ हमारे शरीर पर नहीं, बल्कि पूरी पृथ्वी पर पड़ता है. लेकिन इस बहस में एक बड़ी विडंबना दिखाई देती है. बहुत सारी ऊर्जा इस बात में लग जाती है कि शाकाहारी लोगों को वीगन बनाया जाए, मानो यही सबसे बड़ा समाधान हो. आंकड़े और ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही कहानी कहते हैं. इससे पता चलेगा की वीगन एक्टिविज़्म को ज़मीनी सच्चाई से जोड़ने की ज़रूरत है.
दुनिया क्या खा रही है, यह समझना ज़रूरी है
आज दुनिया की आबादी लगभग 8 अरब से ज़्यादा है. इनमें से लगभग पांचवां हिस्सा यानी करीब 22 प्रतिशत लोग शाकाहारी हैं. ये लोग अनाज, दाल, सब्ज़ी, फल खाते हैं और साथ में दूध या अंडे भी लेते हैं. दूसरी तरफ़, लगभग 78 प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं, जो रोज़ या नियमित रूप से मांस, मछली या अन्य पशु-आधारित भोजन करते हैं.
सीधे शब्दों में कहें तो दुनिया में लगभग 1.8 अरब शाकाहारी हैं और 6.3 अरब लोग मांस खाते हैं. यही असली तस्वीर है. अगर नुकसान को कम करना है, तो ध्यान वहीं देना होगा जहां संख्या भी ज़्यादा है और असर भी.
भोजन व्यवस्था और धरती पर उसका बोझ
आज की आधुनिक खाद्य व्यवस्था धरती पर भारी दबाव डाल रही है. खेती, पशुपालन, परिवहन और प्रोसेसिंग मिलकर दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गॅस उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई हिस्सा पैदा करते हैं. इस पूरे तंत्र में सबसे बड़ा योगदान मांस और पशु-आधारित उत्पादों का है.
मांस की बढ़ती मांग के कारण जंगल काटे जाते हैं, पानी की भारी खपत होती है, मिट्टी बंजर होती है और वन्य जीवों का घर उजड़ता है. इसके साथ-साथ करोड़ों पशुओं को ऐसी परिस्थितियों में पाला और मारा जाता है, जिनकी कल्पना भी पीड़ादायक है. यह संकट केवल पर्यावरण का नहीं, करुणा और नैतिकता का भी है.
खाने की थाली और उसका पर्यावरणीय असर
वैज्ञानिक अध्ययनों से साफ़ पता चलता है कि हम क्या खाते हैं, इससे पर्यावरण पर पड़ने वाला असर बहुत बदल जाता है. जो लोग मांस ज़्यादा खाते हैं, उनका कार्बन फुटप्रिंट सबसे ज़्यादा होता है. जब कोई व्यक्ति शाकाहारी बनता है, तो उसका पर्यावरणीय असर अपने-आप काफ़ी कम हो जाता है. और जो लोग पूरी तरह वीगन होते हैं, उनका असर और भी कम होता है.
लेकिन सबसे बड़ा बदलाव तब आता है, जब कोई व्यक्ति मांस खाना छोड़ता है. शाकाहारी से वीगन बनने का फ़ायदा ज़रूर है, लेकिन वह फ़ायदा उतना बड़ा नहीं है जितना मांस छोड़ने से मिलता है. यह बात अक्सर बहस में खो जाती है.
अगर सभी शाकाहारी वीगन बन जाएं तो?
अक्सर यह कहा जाता है कि अगर सभी शाकाहारी लोग दूध और अंडे भी छोड़ दें, तो जलवायु संकट पर बड़ा असर पड़ेगा. यह सोच पूरी तरह ग़लत नहीं है, लेकिन अधूरी ज़रूर है. आंकड़े बताते हैं कि ऐसा होने पर भी कुल वैश्विक उत्सर्जन में बहुत ज़्यादा कमी नहीं आएगी. यह एक अच्छा कदम होगा, लेकिन इससे दुनिया की दिशा रातों-रात नहीं बदलेगी.
असली बदलाव कहां से आएगा?
अगर ध्यान मांस खाने वालों पर दिया जाए, तो तस्वीर बदल सकती है. सोचिए, अगर मांस खाने वालों में से सिर्फ़ हर दस में से एक व्यक्ति भी शाकाहारी बन जाए, तो उसका असर लगभग उतना ही होगा जितना सभी शाकाहारियों के वीगन बनने से. और अगर यह संख्या बढ़कर बीस या तीस प्रतिशत हो जाए, तो पर्यावरण पर पड़ने वाला सकारात्मक असर बहुत बड़ा हो सकता है.
यही वह रास्ता है जहां छोटे-छोटे बदलाव मिलकर बड़ा असर पैदा करते हैं.
पशु पीड़ा का सवाल, जिसे हम भूल जाते हैं
जलवायु के आंकड़ों के पीछे एक और सच्चाई छुपी है—पशुओं की पीड़ा. हर साल अरबों पशु सिर्फ़ खाने के लिए मारे जाते हैं. अगर मांस की माँग थोड़ी भी कम होती है, तो इसका सीधा मतलब है कि उतने ही पशुओं को जन्म लेने, कैद में रहने और दर्दनाक मौत से बचाया जा सकता है.
इस नज़रिए से देखें तो मांसाहारियों की संख्या में कमी लाना पशु-करुणा के लिए कहीं ज़्यादा असरदार है, बजाय इसके कि शाकाहारियों पर और सख़्ती की जाए.
ज़मीनी और व्यावहारिक रास्ता
अगर सच में बदलाव चाहिए, तो शुरुआत व्यावहारिक तरीक़े से करनी होगी. मांस खाने वालों से यह कहना कि वे तुरंत पूर्ण वीगन बन जाएं, अक्सर उल्टा असर करता है. इसके बजाय अगर उन्हें मांस कम करने, सप्ताह में कुछ दिन शाकाहारी खाने, या स्थानीय और पारंपरिक शाकाहारी भोजन अपनाने के लिए प्रेरित किया जाए, तो ज़्यादा लोग जुड़ सकते हैं.
जब शाकाहार की एक मज़बूत नींव बन जाती है, तब धीरे-धीरे वीगन विकल्पों की ओर बढ़ना कहीं आसान हो जाता है.
आख़िरी बात
अगर हमारा लक्ष्य वास्तव में जलवायु संकट को कम करना, पशु पीड़ा घटाना और धरती को बचाना है, तो हमें ईमानदारी से यह मानना होगा कि सबसे बड़ा मुद्दा दूध पीने वाला शाकाहारी नहीं है. असली चुनौती है मांस खाने की वैश्विक आदत.
बड़ा बदलाव वहीं से शुरू होगा, जहां नुकसान सबसे ज़्यादा हो रहा है. शाकाहार-प्रथम सोच न सिर्फ़ व्यावहारिक है, बल्कि लंबे समय में सबसे प्रभावी भी है.
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डॉ धिरज जैन एक विचारक और एक्टिविस्ट है. वह पहले एक वेगन थे, और वेगनिज्म के प्रचारक थे. लेकिन अब वह वेगन नहीं है, और आजकल वह अपने अनुभवों के और शोधकार्य के आधार पर No More Vegan यह पुस्तक लिख रहें हैं.
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