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राजपूत और जैन धर्म
राजपूत समाज और जैन धर्म इनका निकट और गहरा का नाता है. यह एक दोहरा नाता है. एक ओर पश्चिम भारत के लगभग सभी राजपूत राजवंशों ने शैव धर्म के साथ साथ जैन धर्म का भी समर्थन किया, और दूसरी ओर लाखों राजपूतों ने जैन धर्म अपनाया. इसका विवेचन करने से पहले हमें देखना होगा कि राजपूत कौन है?
कौन है राजपूत ?
राजपूत इस नाम से ही पता चलता है की इसका अर्थ ‘राजपुत्र’ होता है. राजपूत समाज भारत का एक प्रसिध्द लडाकू समाज है. इस समाज के लोग उत्तर भारत के कई राज्यों में बसे हुए है लेकिन इनका प्रभाव राजस्थान में ज्यादा रहा. इसी कारण राजस्थान को राजपुताना इस नाम से जाना जाता था. राजस्थान के अलावा गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में भी इनकी संख्या काफी है.
लडाकू होने के कारण भारतीय सेना में राजपूत सैनिक भारी संख्या में दिखाई देते है. भारतीय सेना में राजपूत रेजिमेंट और राजपुताना रायफल्स रेजिमेंट भी है, जिसमें ज्यादातर राजपूत सैनिक होते है.
राजनीति, खेलकूद, सिनेमा, शिक्षा, पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में भी राजपूत समाज का प्रभाव दिखाई देता है.
इस समाज का मूल कहां है इसके बारे में कई अटकले लगाई गयी हैं, लेकिन इस समाज के अलग अलग कुल और उनका मूलस्थान इन बातों का विचार करने से दिखाई देता है कि राजपूत समाज भारत के अलग अलग प्रदेशों के लडाकू जातियों से बना हुआ है. इस में प्राचीन भारत के राजवंशों से और लडाकू जातियों से लेकर मध्यकालपूर्व दक्षिण भारत के राजवंशों तक कई वंश दिखाई देते हैं. इन राजवंशों के एकत्र आने और राजपूत नाम से प्रस्थापित होने की प्रक्रिया 8वी शताब्दी से लेकर 12वी शताब्दी तक चलती रही.
एक उल्लेखनीय बात यह है कि मध्यकाल में दूसरे कुछ राजवंशों की शुरुआत हो गयी जो राजपूत नहीं कहलाये गये, लेकिन उनमें से ज्यादातर राजवंश राजपूत मूल के हैं. इसका एक बड़ा उदाहरण है दक्खन का भोसले राजवंश, जिसमें छत्रपति शिवाजी, छत्रपति संभाजी, छत्रपति राजाराम आदि महान राजा और योद्धा हुए. भोसले कुल का मूल उदयपुर के सिसोदिया कुल से माना जाता है.
राजपूत और जैन धर्म
वैसे तो राजस्थान और पडोसी राज्यों में जैन धर्म का इतिहास 2500 वर्ष पूर्व तक जाता है, लेकिन इस प्रदेश में जैन धर्म का विकास राजपूत काल में तेजी से हुआ. मेवाड, मारवाड और राजस्थान के अन्य विभागों में, और आसपास के सभी प्रदेशों में राजपूतों के कारण जैन धर्म एक जन धर्म बन गया.
ज्यादातर राजपूत राजा शैव धर्म को मानने वाले थे, लेकिन उनके राज में और निजी जीवन में जैन धर्म का लगभग उतना ही स्थान था, जितना कि शैव धर्म का. यही कारण है कि राजपूतों के लगभग हर किले पर जैन मंदिर बांधे जाते थे. राजपूत राजा और रानियां जैन मुनियों को बडा सम्मान देते देते थे और उनसे उपदेश लेते थे.
राणकपूर का विशाल और प्रसिद्ध जैन मंदिर धर्मा शाह नाम के एक जैन व्यापारी ने बनवाया. जब वह इस मंदिर की योजना लेकर राजपूत राजा राणा कुंभा के पास गया, तो राणा कुंभा को यह योजना इतनी पसंद आ गयी कि उन्होंने मंदिर के लिए एक बड़ी जमीन दे दी और धर्म शाह को यह सलाह भी दी कि मंदिर के पास एक नगर भी बसाया जाय. उसके अनुसार वहा एक नगर बसाया गया और उसका नाम राणा कुंभा के नाम पर राणकपूर रखा गया. 15 वी सदी में निर्मित इस मंदिर की विशेषता यह है इसमें 1444 विशाल स्तंभ हैं और एक स्तंभ जैसा दूसरा कोई स्तंभ नहीं है. (यूनिक).
चित्तौड, जैसलमेर, अम्बर, कुंभलगढ, आमेर, रणथंबोर के किलों में स्थित जैन मंदिर देखने लायक हैं.
ज्यादातर राजपूत राजा शाकाहारी थे इसका कारण उनपर जैन धर्म का प्रभाव था यही था.
भामा शाह
राजपूत राजाओ के दरबारों में, प्रशासन में और सैन्य अधिकारियों में कई जैन व्यक्ति दिखाई देते हैं. एक बडा उदाहरण है भामा शाह का, जो महाराणा प्रताप के प्रधान मंत्री व सेनापति थे. भामा शाह रणथंबोर के किलेदार भारमल कावेडिया के पुत्र थे. हल्दी घाटी के युद्ध में भामा शाह और उनके छोटे भाई ताराचंद इन दोनों ने सेना के एक हिस्से का नेतृत्व किया था.
महाराणा प्रताप के मालवा अभियान का नेतृत्व भामाशाह व ताराचंद ने किया और अकबर के सुलतान की सेना पर आक्रमण कर वहां से काफी धन लूटकर महाराणा के सुपुर्द किया, साथ ही अपनी अपार निजी संपत्ति भी महाराणा प्रताप को दान की, जिसका उपयोग नयी सेना खडी करने के लिए किया गया. उदयपुर में राणाओं की समाधि स्थल के मध्य भामाशाह की समाधि बनी है.
राजपूत, रानी जयतल्लदेवी और नेपाल का राणा राजवंश
मेवाड के तेरहवी सदी के महाराणा तेजसिंह की पट्टरानी जयतल्लदेवी जैन धर्मावलंबी थी. उसका पुत्र समरसिंह था. वह मेवाड का राजा बना. समरसिंह के दो पुत्र थे, पहला रतन सिंह और दूसरा कुम्भकर्ण. समरसिंह के बाद रतनसिंह राजा बना और कुम्भकर्ण नेपाल चला गया और वहां का राजा बना. नेपाल का राणा राजवंश इसी कुम्भकर्ण से शुरू हुआ.
राणा सांगा
राणा सांगा जैन मुनियों का बड़ा सम्मान करते थे. जैन आचार्य धर्म रत्न सूरी के उपदेश से राणा सांगा ने शिकार करने का त्याग किया.
सोलंकी और राठोड वंश
राजपुतो के बारे में एक उल्लेखनीय बात यह है कि राजपूतों के सोलंकी और राठोड वंश का मूल दक्षिण भारत (कर्नाटक-महाराष्ट्र) से था. सोलंकी चालुक्यों के वंशज थे. चालुक्यों ने कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों पर राज्य किया. इनकी एक शाखा ने गुजरात पर राज्य किया. दक्षिण के चालुक्यों पर भी जैन धर्म का बड़ा प्रभाव था.
राठोड दक्षिण के राष्ट्रकूटों के वंशज हैं. राष्ट्रकूटों ने दक्षिण और मध्य भारत पर एक लम्बी अवधी तक राज किया. इनपर भी जैन धर्म का बड़ा प्रभाव था. दंतिदुर्ग, अमोघवर्ष आदि राजा जैन धर्म का पालन करते थे. अमोघवर्ष 9 वी सदी के प्रसिध्द जैन आचार्य जिनसेन के शिष्य थे.
चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के काल में कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में जैन धर्म फला फूला.
राजपूत काल में राजस्थान और पडोसी प्रदेशों में कई महान जैन आचार्य हुये. इनमें से एक थे आचार्य हीर विजय सूरी. महाराणा प्रताप इनका बड़ा सम्मान करते थे. आचार्य हीर विजय सूरी ने बादशाह अकबर को शाकाहारी बनाया था और महाराणा प्रताप ने आचार्य श्री को लिखे हुए एक पत्र में इस बात की प्रशंसा भी की थी.
राजपूत काल में लाखों की संख्या में राजपूत और अन्य समाजों के लोगों ने जैन धर्म अपनाया. आज की कई जैन जातियों का उगम राजपूतों से हो गया है. जैसे कि ओसवाल, जो एक प्रभावशाली जैन जाति है, मूल रूप से राजपूत है. ओसवालों के मूल कुल/शाखाएं (Clans) है सोलंकी, सिसोदिया, परमार, चौहान, राठोड, पंवार आदि, जो कि वास्तव में राजपूतों के कुल हैं.
जैन समाज की खंडेलवाल, पोरवाल, हुमड़ आदि जातियां भी मूल रूप से राजपूत है.
आज के राजपूत और जैन धर्म
आज के ज्यादातर राजपूत शैव धर्म को मानने वाले है, लेकिन उनकी जैन धर्म में आस्था पहले जैसे ही बरकरार है. कई राजपूत आज भी जैन धर्म का पालन करते हैं.
जैन मुनियों में कुछ मुनि राजपूत समाज से है. दो उल्लेखनीय नाम हैं: आचार्य श्री योगीश, जो अमेरिका और मेक्सिको में जैन दर्शन और जैन जीवनशैली का प्रचार करते हैं; उपाध्याय अमरमुनि, जिन्होंने जैन धर्म को एक नया आयाम दिया.
जैन साध्वियों में सुशिल कंवर जी महाराज, प्रतिष्ठा जी महाराज राजपूत समाज से हैं.
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