
अतुल बाफना
सवाल था कि ‘जय जिनेन्द्र’ की शुरुआत कब हुई? इसका जवाब है – जय जिनेन्द्र! यह अभिवादन 7वीं शताब्दी में शुरू हुआ और जैन धर्म के लोगों के बीच एक आम परंपरा बन गया. इसका मतलब है “जिनों (तीर्थंकरों) का सम्मान”.
यह अभिवादन दो संस्कृत शब्दों से बना है: जय और जिनेन्द्र. जय का मतलब होता है “विजय” या “प्रशंसा”. यहां यह जिनों के गुणों की प्रशंसा के लिए इस्तेमाल होता है. जिनेन्द्र का अर्थ है “जिन (विजेता) और इंद्र (स्वामी)”. जिन का मतलब है वह व्यक्ति जिसने अपनी इच्छाओं और बुरे कर्मों पर पूरी तरह विजय पा ली हो और शुद्ध ज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त किया हो.
634 ईस्वी के एक शिलालेख में “जय जिन” लिखा मिलता है, जो “जय जिनेन्द्र” जैसा ही है. यह शिलालेख कर्नाटक के मेगुति मंदिर की दीवार पर खुदा हुआ है. इसे जैन कवि रविकीर्ति ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय की प्रशंसा में लिखा था.

इतिहास
पहले श्लोक में लिखा है:
“पवित्र जिन विजयशाली हैं – वे, जो जन्म, मृत्यु और बुढ़ापे से मुक्त हैं. उनके ज्ञान के सागर में पूरा संसार एक द्वीप की तरह है.”
इस श्लोक के साथ “जय जिनेन्द्र” का अभिवादन जैन परंपरा का हिस्सा बन गया.
हिंदू धर्म में भी “जय” शब्द से भगवान का नाम जोड़कर अभिवादन किया जाता है, जैसे जय श्रीराम, जय हनुमान आदि. लेकिन जय जिनेन्द्र खास इसलिए है क्योंकि यह उन महापुरुषों की प्रशंसा करता है, जिन्होंने अपने कर्मों को पूरी तरह खत्म कर लिया और बिना किसी ईश्वर की मदद के अपनी आत्मा को मुक्त किया.
ऐहोल और हलासी के शिलालेख भी जिन की करुणा, ज्ञान और संसार को मोक्ष का मार्ग दिखाने का जश्न मनाते हैं.
जब भी हम एक-दूसरे को “जय जिनेन्द्र” कहकर अभिवादन करते हैं, तो हम उन महान गुणों को याद करते हैं, जो जिनों ने अपने जीवन में साकार किए.
आप जब “जय जिनेन्द्र” कहते हैं, तो आप किस जिन को याद करते हैं? शायद सभी को? यह आप पर निर्भर करता है.
मैंने इसे समझाने की पूरी कोशिश की है. अगर कोई गलती हो तो माफ कीजिए और अपनी जानकारी जरूर बताइए. अगले महीने एक नया सवाल और उसका जवाब लेकर आऊंगा. तब तक जैन धर्म के इस गौरवशाली इतिहास को जानिए और दूसरों से साझा कीजिए.
*अतुल बाफना (पुणे) जैन इतिहास के स्कॉलर और लेखक हैं.
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