
महावीर सांगलीकर
सूचना: मेरा यह लेख अल्पबुद्धि और अंधभक्त लोगों के नहीं लिए है, बल्कि उनके लिये है जिनमें कुछ अलग से सोचने की क्षमता और बदलाव लाने की इच्छा है.
कृपया इस लेख पर आप अपने विचार निचे कॉमेंट बॉक्स में लिखें.
आजकल के बहुत सारे जैन साधु जैन धर्म का प्रचार करने के बजाय खुद का प्रचार करने में लगे हुए हैं, अपनी-अपनी टोलियां बनाकर रह रहे हैं, सम्प्रदायवाद को बढावा देने लगे हैं और जैन समाज में फूट डाल रहें है. कई साधु राजनितिक पार्टियों के एजेंट बन कर काम कर रहें हैं. मानो या न मानो, ज्यादातर जैन साधू इसी प्रकार के हैं.
जो खुद अपने रास्ते से भटक गए हैं, वह समाज का क्या मार्गदर्शन करेंगे?
दूसरी और जैन मंदिर जैन धर्म के प्रचार के दृष्टी से निरुपयोगी बन गए हैं, मंदिरों का आत्मचिंतन, ज्ञान और त्याग से कोई संबंध नहीं हैं, वह कर्मकांड के अड्डे बन गए हैं. वास्तव में सारे जैन मंदिर किसी सम्प्रदाय से और जाती से संबंधित होते हैं. यह मंदिर सबके लिए खुले नहीं होते. कोई अहिन्दु व्यक्ति किसी हिन्दू मंदिर में सहजता से जाकर भगवन के दर्शन ले सकता है, लेकिन कोई अजैन व्यक्ति बिना किसी रोक-टोक जैन मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता. वास्तवता तो यह है कि ज्यादातर जैन मंदिरों में अजैन लोगों को प्रवेश ही नहीं मिल पाता.
चूं कि जैन साधुओं का और जैन मंदिरों के ट्रस्टियों का मतपरिवर्तन करना एक असंभव बात है, हमें कुछ अलग सोचना चाहिये.
यहां मैंने साधुविरहित और मंदिरविरहित जैन समाज के निर्माण के बारे में मेरे विचार रखे हैं.
क्या बिना मंदिर और बिना साधुओं का जैन समाज हो सकता है?
इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें इन दो प्रश्नों पर गौर करना होगा:
क्या बिना साधुओं का जैन समाज होता है? और क्या बिना मंदिरों का जैन समाज होता है?
इन दोनों प्रश्नों के उत्तर ‘हां, ऐसा समाज होता है’ यह है ! इसके कुछ उदहारण मैं यहां दे रहा हूं.
बिना साधुओं का जैन समाज
जैन समाज के कुछ ऐसे संप्रदाय हैं, जिनमें साधुओं का अभाव है, या उस समाज में साधुओं को बिलकुल महत्त्व नहीं दिया जाता! भलेही उन समाजों में णमोकार मंत्र की मान्यता है और इस मंत्र का जाप करते समय ‘णमो लोए सव्वसाहुणं’ भी कहा जाता है.
ऐसे समाज हैं:
- कानजी संप्रदाय के अनुयायी
- श्रीमद राजचन्द्र के अनुयायी
- दादा भगवान के अनुयायी
इनके अलावा तारणपंथी सम्प्रदाय के अनुयायी भी साधुओं पर ज्यादा निर्भर नहीं है.
पश्चिमी देशों में जैन धर्म के लाखों अनुयायी हैं, लेकिन वहां जैन साधुओं का आभाव है. फिर भी यह अनुयायी जैन धर्म का व्यवस्थित पालन करते हैं.
इसका मतलब यह हो गया कि बिना साधुओं का भी जैन समाज होता है.
बिना मंदिरों का जैन समाज
अब रही बात बिना मंदिरों के जैन समाज की. ऐसे समाज भी अस्तित्व में हैं!
वह हैं:
- स्थानकवासी संप्रदाय के अनुयायी
- श्वेताम्बर तेरापंथी समाज के अनुयायी
इस प्रकार हम देखते है कि कुछ ऐसे जैन समाज अस्तित्व में हैं जिन्हें जैन धर्म का पालन करने के लिए मंदिर बनवाने की जरुरत नहीं, और कुछ ऐसे जैन समाज भी हैं, जिन्हें ज्ञान पाने के लिए साधुओं की जरुरत नहीं हैं !

ज्ञान पाने के लिए साधुओं की नहीं बल्कि सही पुस्तकें पढ़ने की जरुरत है.
तो क्या ऐसा जैन समाज बन सकता जिसमे ना मंदिर हैं और ना ही साधू?
जैन समाज में बडी संख्या में ऐसे लोग हैं जो ना मंदिर जाते हैं और ना ही साधुओं के पास जाते हैं. फिर भी उनमें से अधिकतर लोग अपने अपने विचारों के अनुसार जैन धर्म का व्यवस्थित पालन करते हैं. इन लोगों का कोई अलग संप्रदाय नहीं हैं, ऐसे लोग जैन समाज के हर संप्रदाय में देखे जाते हैं.
वास्तव में जैन धर्म का ज्ञान होने के लिए ना मंदिर जाने की जरुरत है, और ना ही साधुओं के सामने माथा टेकने की या उनसे प्रवचन सुनने की.
साधुविरहित और मंदिरविरहित जीवन आपको जैन धर्म का सच्चा ज्ञान पाने के लिए उपयोगी है, विशेष कर अगर आप बुद्धिजीवी हैं.
मंदिरों के बारे में यह सोचने की भी आवश्यकता है कि क्या भगवान महावीर के समय कोई जैन मंदिर था? इसका कोई पुरातत्वीय और प्राचीन साहित्यिक सबुत है?
जैन धर्म को विश्वव्यापी बनाने के लिए हमें साधुओं की नहीं बल्कि प्रचारकों की और मंदिरों की नहीं बल्कि ज्ञानकेंद्रों की जरुरत है.
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Nice message. I like this concept.
Bewakoofi bhari bakwas baatein
ऐसी कमेंट देना बेवकूफी है. कुछ सोच समझ कर मेरे लेख का खंडन करें, पॉइंट टू पॉइंट. वह तो आप नहीं कर सकेंगे.
अधूरे ज्ञान का प्रलाप है आपका ये लेख….
घर के कचरा है तो कचरा साफ करते है घर नहीं तोड़ते
जरूरत पड़े तो रिनोवेशन करते है नष्ट नहीं करते
इतनी प्राथमिक समझ भी आपमें नहीं है
जो नया घर ले नहीं सकते उनके लिए आपकी बात ठीक है. ऐसे लोग अपने पुराने घर में, जो उन्होंने खुद नहीं लिया है, रहने के ही लायक होते हैं.
Kanji andh bhakt believes him has god so is with Stimad sampraday , look how blind they are to Rakesh , so all these people ended up with hoax god and gurus 😂
मैं ना कानजी वाला हूं , ना श्रीमद वाला, ना दिगंबर, ना श्वेताम्बर. मुझे किसी पंथ से कोई लेना देना नहीं है. पंथवाद तो आप लोगों के लिए है. इसलिए आप विचार नहीं कर सकते, पॉइन्ट टू पॉइंट उत्तर नहीं दे सकते.
Mahavirji,
While on a standalone basis, the thought seems palpable, however, for it to work (say for an individual like me), one needs a very high level of thinking and knowledge to sustain the path of only self study.
From an initiation perspective, for a person to practice the principles of Jainism, the seeds are sown by either the parents/elders or by going to Mandirs or Sthanataks etc. Once that is done and the person attains some maturity/knowledge, he can surely continue on the path through reading of books (as rightly suggested by you). However, for that to be the only solution seems far-stretched in my view.
While I agree with the issues highlighted by you in the beginning of the article as the basis Jain principles are somehow getting diluted due to these issues. I think a mix of putting more reliance on self study and less on the other (ie going to mandirs / interactions with other fellow jains). After all human being is a social animal and needs to interact within a social circle as well.
Pardon my remarks if they offend you in any manner. If you could guide me to a list or compilation of good books to read, I shall be grateful.
Regards
महावीर भाई ,
मोक्षमार्ग की शुरुआत सम्यक दर्शन से होती हुई मुनि अवस्था तक पहुँचती है (१२ वें गुणनस्थान तक मुनि अवस्था है)
तो साधु बिना का जिन धर्म क्या पूर्णता को प्राप्त होगा ?
बिना जिन मंदिर का जिन धर्म:
माना तीर्थंकर के लिए (भगवान महावीर के सामने या ऋषभ नाथ के सामने मंदिर नहीं थे) मंदिर या जिन प्रतिमा की या गुरु की जरूरत नहीं थी, पर उसके लिए तीर्थंकर होना पड़ेगा।
जिन मंदिर की जरूरत केवल प्रेरित करने के लिए है। हाँ ये माना जा सकता है कि आज कुछ विसंगतियां उत्पन्न हुई है जिसमे मंदिरों की कमेटियों में राजनैतिक घुसपैठ हो चुकी है और मंदिरों को जैनियों के लिये सीमित कर दिया गया है जो कि जिन दर्शन के विपरीत है।
पर इसका समाधान नई कल्पना नहीं उसमे जिनेंद्र देव के उपदेशानुसार सुधार है।
एक नया पंथ शुरू करने की भावना है तो अलग बात है।