
महावीर सांगलीकर
यापनीय संप्रदाय का परिचय
जैन धर्म, जो भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है, मुख्य रूप से दिगंबर और श्वेतांबर दो प्रमुख संप्रदायों में विभाजित है. हालांकि, जैन धर्म में समय-समय पर अन्य छोटे संप्रदाय भी उभरे, जिन्होंने जैन धार्मिक विचारधारा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ऐसा ही एक अनोखा संप्रदाय था यापनीय संप्रदाय, जो 5वीं से 15वीं शताब्दी ईस्वी के बीच फला-फूला. यह संप्रदाय इतिहासकारों और विद्वानों के लिए खास है क्यों कि इसने दिगंबर और श्वेतांबर परंपराओं का अनूठा समन्वय किया. यापनीय संप्रदाय ने जैन दर्शन, साहित्य और मुनि परंपरा में महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन अंततः यह दिगंबर संप्रदाय में विलीन हो गया.
यह संप्रदाय दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों के बीच एक सेतु के रूप में उभरा, जिससे दोनों समुदायों के बीच के धार्मिक मतभेदों को हल किया जा सके. यापनीयों ने दिगंबरों की कठोर तपस्या और श्वेतांबरों के लचीले दृष्टिकोण के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया. इस संकल्पना ने उन्हें दोनों संप्रदायों के अनुयायियों को आकर्षित करने में मदद की और उनकी अलग पहचान स्थापित की.
यापनीय संप्रदाय: उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
यापनीय संप्रदाय की सही उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार यह मुख्य रूप से कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिमी तट के इलाकों में लोकप्रिय था. यापनीयों का सबसे पुराना उल्लेख 5वीं शताब्दी ईस्वी के अभिलेखों में मिलता है, विशेष रूप से कर्नाटक में. 8वीं शताब्दी के हम्पी अभिलेख में यापनीय संप्रदाय का उल्लेख किया गया है, जो इस संप्रदाय की धार्मिक गतिविधियों और प्रभाव को दर्शाता है.
दिगंबर जैन आचार्य देवसेन के अनुसार यापनीय संप्रदाय का मूल श्वेताम्बर परंपरा में था. अन्य उल्लेखों और कथाओं से भी यापनीय संप्रदाय का मूल श्वेताम्बर परंपरा में दिखाई देता है.
कदम्ब और चालुक्यों के काल में यापनीय सम्प्रदाय को बढावा मिला.
दिगंबर और श्वेताम्बर परंपरा के कई ग्रंथों में यापनीय सम्प्रदाय का उल्लेख किया गया है.
धार्मिक मान्यताएं और परंपराएं
यापनीय संप्रदाय ने अपनी अलग पहचान बनाए रखते हुए दिगंबर और श्वेतांबर परंपराओं के तत्वों को अपनाया. उनके धार्मिक विचारों और परंपराओं को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:
वस्त्र और मुनि आचार संहिता: यापनीय मुनि जब मंदिरों में और तीर्थक्षेत्रों पर रहते थे, तब दिगंबर मुनियों की तरह पूर्ण रूप से नग्न रहते थे, लेकिन जब वह गोचरी के लिए बाहर जाते थे, तब श्वेतांबर मुनियों की तरह सफेद वस्त्र धारण करते थे. यह एक महत्वपूर्ण अंतर था, जिसने उन्हें दिगंबर संप्रदाय से अलग किया लेकिन श्वेतांबरों से भी भिन्न रखा. दूसरी ओर, इन दोनों सम्प्रदायों को जोडे भी रखा.
ग्रंथ और दार्शनिक दृष्टिकोण: उनके साहित्य और दर्शन दिगंबर परंपरा के अधिक निकट थे, विशेष रूप से तत्वमीमांसा, कर्म सिद्धांत और मोक्ष संबंधी विचारों में. उन्होंने कुछ दिगंबर ग्रंथों को स्वीकार किया, लेकिन कुछ प्रथाओं में बदलाव किया. यह उदारमतवादी थे और स्त्री मुक्ति (स्त्रियों का उसी पर्याय में मोक्ष जाना) में विश्वास रखते थे. (जब कि दिगंबर स्त्री मुक्ति का विरोध करते थे और श्वेताम्बर समर्थन करते थे).
सल्लेखना पर जोर: यापनीय संप्रदाय ने सल्लेखना (संथारा, संयमपूर्वक मृत्यु को अपनाने की प्रक्रिया) पर विशेष जोर दिया. यह प्रक्रिया दिगंबर और श्वेतांबर दोनों संप्रदायों में मान्य थी, लेकिन यापनीय मुनियों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती थी. वे इसे त्याग और मोक्ष प्राप्ति का सर्वोच्च मार्ग मानते थे.
यापनीय जैन मूर्तियां: यापनीय संप्रदाय की मूर्तियों में दिगंबर और श्वेताम्बर परम्पराओं का अनोखा समन्वय दिखाई देता है. यह मूर्तियां पूर्ण रूप से दिगंबर होती थी, लेकिन इन मूर्तियों की आंखे श्वेताम्बर मूर्तियों की तरह खुली रहती थी. इस सम्प्रदाय की कई मूर्तियां आज भी कई जैन मंदिरों में , यहां तक की कई जैन तीर्थक्षेत्रों पर दिखाई देती है. आज भी कर्णाटक, आंध्र, तेलंगना, दक्षिण महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में उत्खनन में जो जैन मूर्तियां पाई जाती हैं, वह ज्यादातर यापनीय संप्रदाय की होती हैं.

साहित्यिक योगदान
यापनीय संप्रदाय ने जैन साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने कई ग्रंथ लिखे, जिनमें “यापनीय अनुयोगदर्शन” विशेष रूप से उल्लेखनीय है. इस ग्रंथ में जैन नैतिकता, दर्शन और मुनि आचार संहिता का विस्तृत वर्णन मिलता है. संप्रदाय से जुड़े कुछ प्रमुख विद्वान निम्नलिखित हैं:
श्रीपाल: एक प्रसिद्ध जैन आचार्य, जिन्होंने जैन सिद्धांतों और नैतिक व्यवहार पर महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे.
शकटायन: एक महान जैन दार्शनिक, जिन्होंने संस्कृत व्याकरण और जैन दर्शन पर महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनके कार्यों का उल्लेख बाद के दिगंबर ग्रंथों में भी किया गया है, जो उनकी स्थायी विरासत को दर्शाता है.
यापनीयों ने जैन आगम ग्रंथों की व्याख्या में भी योगदान दिया, जिससे दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों के बीच वैचारिक खाई को पाटने में मदद मिली. उनके कई लेखन बाद में दिगंबर साहित्य में सम्मिलित कर लिए गए, जिससे उनकी बौद्धिक धरोहर मजबूत हुई.
यापनीय संप्रदाय का पतन और विलय
12वीं शताब्दी ईस्वी तक आते-आते, यापनीय संप्रदाय का पतन होने लगा. इसके पीछे कई कारण थे:
दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण यापनीयों का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो गया.
समय के साथ, कई यापनीय मुनि और अनुयायी दिगंबर संप्रदाय में सम्मिलित हो गए, जिससे उनकी अलग पहचान समाप्त हो गई. दिगंबर परंपरा ने उनके कई ग्रंथों और प्रथाओं को आत्मसात कर लिया.
जहां दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों के पास संगठित मठ और आश्रम थे, वहीं यापनीय संप्रदाय को पर्याप्त आर्थिक और सामाजिक समर्थन नहीं मिला.
कई प्रमुख जैन तीर्थ स्थल, जो कभी यापनीय संप्रदाय के केंद्र थे, समय के साथ या तो दिगंबर या श्वेतांबर संप्रदाय के अंतर्गत आ गए, जिससे यापनीय संप्रदाय की पहचान और कमजोर हो गई.
विरासत और निष्कर्ष
यापनीय संप्रदाय जैन धर्म के इतिहास का एक रोचक अध्याय है, जो जैन परंपराओं में विविधता और लचीलेपन को दर्शाता है. यह संप्रदाय आज भले ही स्वतंत्र रूप से मौजूद न हो, लेकिन इसका प्रभाव जैन साहित्य, मुनि परंपराओं और दार्शनिक चर्चाओं में देखा जा सकता है. यापनीयों ने जैन धर्म की विभिन्न धाराओं को जोड़ने और दोनों प्रमुख संप्रदायों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
यापनीय संप्रदाय का अध्ययन हमें जैन धर्म के विकास, विभिन्न परंपराओं के आपसी संबंधों और उन ऐतिहासिक घटनाओं को समझने में मदद करता है, जिनके कारण जैन संप्रदायों का मौजूदा स्वरूप बना. उनकी विरासत जैन धर्म के जटिल और गतिशील इतिहास पर प्रकाश डालती है, जो इसे एक अनूठा और समृद्ध धार्मिक परंपरा बनाता है.
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