आचार्य विजयानंद सूरी: एक महान जैन विद्वान और सुधारक

महावीर सांगलीकर

jainway@gmail.com

आचार्य विजयानंद सूरी, जिन्हें मुनि आत्मारामजी (गुजरांवाला) के नाम से भी जाना जाता है, 19वीं सदी के एक महान जैन आचार्य, विद्वान और समाज सुधारक थे. उन्होंने जैन धर्म के पुनरुद्धार और आधुनिकीकरण में अहम भूमिका निभाई. वे आधुनिक समय में प्रथम श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन साधु थे जिन्हें ‘आचार्य’ की उपाधि मिली. उनकी जैन साहित्य, मंदिरों के जीर्णोद्धार और सामाजिक सुधारों में दी गई सेवाओं ने भारत में जैन धर्म के धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया.

प्रारंभिक जीवन और जैन धर्म में दीक्षा

आचार्य विजयानंद सूरी का जन्म 6 अप्रैल 1837 को पंजाब के लेहरा में एक हिंदू परिवार में हुआ था. उनके पिता गणेशचंद्र महाराजा रणजीत सिंह की सेना में अधिकारी थे, लेकिन जब विजयानंद छोटे थे, तभी उनका निधन हो गया. उनकी माता रूपदेवी ने उनका पालन-पोषण किया. शिक्षा के लिए उन्हें पंजाब के जिरा के सेठ जोधमल के पास भेजा गया, जहाँ उन्होंने हिंदी और अंकगणित का अध्ययन किया. स्कूल के दौरान वे स्थानकवासी मुनियों के संपर्क में आए और 1853 में मात्र 16 वर्ष की आयु में, उन्होंने स्थानकवासी परंपरा में दीक्षा ली. उनका नाम आत्माराम रखा गया.

मूर्तिपूजक परंपरा में परिवर्तन और आचार्य पद

आत्मारामजी ने जैन ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और विभिन्न जैन संप्रदायों के विद्वानों से चर्चा की. उन्होंने पाया कि स्थानकवासी परंपरा में मूर्तिपूजा का विरोध जैन शास्त्रों के विरुद्ध था. 1876 में उन्होंने अहमदाबाद में तपागच्छ के मुनि बुद्धिविजयजी द्वारा दोबारा दीक्षा ली और उनका नाम ‘आनंदविजय’ रखा गया.

1886 में पालीताना में चातुर्मास के दौरान, जैन संघ ने उन्हें आचार्य की उपाधि दी. यह ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि लगभग चार शताब्दियों से किसी भी साधु को यह उपाधि नहीं दी गई थी. उनकी नियुक्ति से संवेगी साधुओं (पूर्ण रूप से दीक्षित मुनियों) की परंपरा पुनर्जीवित हुई और यति परंपरा (विशेष जैन साधु वर्ग) का प्रभाव कम होने लगा.

जैन साहित्य में योगदान

आचार्य विजयानंद सूरी एक उच्च कोटि के विद्वान थे और उन्होंने कई महत्वपूर्ण जैन ग्रंथों की रचना और अनुवाद किए. उनके कुछ प्रमुख ग्रंथ हैं:

  • द शिकागो प्रश्नोत्तर (शिकागो विश्व धर्म महासभा के लिए जैन धर्म पर प्रश्नोत्तर) – 1893 में विश्व धर्म महासभा के लिए लिखा गया
  • जैन तत्त्वदर्श
  • अज्ञान तिमिर भास्कर
  • सम्यक्त्व-शल्यद्वार
  • तत्त्व निर्णय प्रासाद

उन्होंने जैन भंडारों (पुस्तकालयों) को खोलने की दिशा में प्रयास किए, जिससे वर्षों से आम लोगों के लिए बंद रखे गए प्राचीन जैन ग्रंथों को संरक्षित, नकल और अध्ययन के लिए उपलब्ध कराया जा सके.

मंदिर जीर्णोद्धार और तीर्थयात्रा का पुनरुद्धार

उनके समय में कई जैन मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गए थे. आचार्य विजयानंद सूरी ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कई महत्वपूर्ण जैन मंदिरों के पुनर्निर्माण और मरम्मत का कार्य करवाया. उन्होंने जैन समाज में तीर्थयात्रा की परंपरा को पुनर्जीवित करने में भी योगदान दिया और लोगों को अपने पवित्र स्थलों से जुड़ने के लिए प्रेरित किया.

सामाजिक और धार्मिक सुधार

आचार्य विजयानंद सूरी ने अंधविश्वास और जैन समाज की पुरानी रूढ़ियों को दूर करने के लिए निरंतर प्रयास किया. उन्होंने पंजाब के स्थानकवासियों को मूर्तिपूजक परंपरा में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप लगभग 15,000 लोग जैन धर्म में परिवर्तित हुए.

उन्होंने शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया और पंजाब में कई जैन पाठशालाओं और पुस्तकालयों की स्थापना की. उनके शिष्य वल्लभसूरी ने आगे चलकर कई विद्यालय, अस्पताल और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की. वल्लभसूरी ने उन्हें ‘नवयुग निर्माता’ की उपाधि से सम्मानित किया.

शिकागो विश्व धर्म महासभा में भूमिका

1893 में, आचार्य विजयानंद सूरी को शिकागो में आयोजित प्रथम विश्व धर्म महासभा में आमंत्रित किया गया. लेकिन जैन साधु विदेश यात्रा नहीं करते, इसलिए उन्होंने वीरचंद गांधी को प्रतिनिधि के रूप में भेजा. वीरचंद गांधी ने वहां जैन धर्म का प्रतिनिधित्व किया जिससे जैन धर्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली.

निधन और स्मारक

आचार्य विजयानंद सूरी का 20 मई 1896 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में निधन हो गया. उनकी स्मृति में लाला मायादास नानकचंद भाबरा द्वारा एक स्मारक मंदिर बनवाया गया. उनकी चरण पादुकाएँ (छत्री) और अन्य स्मृति चिह्न लाहौर किले के संग्रहालय में सुरक्षित रखे गए.

गुजरांवाला में स्थित यह स्मारक गलती से महाराजा रणजीत सिंह के दादा चरतर सिंह की समाधि समझ लिया गया, जिसके कारण यह उपेक्षित हो गया. 1984 से 2003 तक इसे पुलिस थाने के रूप में उपयोग किया गया और 2015 तक यहाँ यातायात पुलिस का कार्यालय था. 2019 में, पाकिस्तान सरकार ने इसे एक संरक्षित स्मारक घोषित किया. 28 मई 2023 को 75 वर्षों के बाद आचार्य गच्छाधिपति धर्मधुरंधर सूरी और अन्य जैन साधु एवं अनुयायियों ने इस स्मारक का दौरा किया.

विरासत

आचार्य विजयानंद सूरी की परंपरा में तपागच्छ के लगभग 1/4 वर्तमान जैन साधु आते हैं. उनकी प्रमुख शिष्य परंपराएँ आत्म-वल्लभ समुदाय, प्रेम-रामचंद्र सूरी समुदाय और प्रेम-भुवनभानु सूरी समुदाय हैं.

उन्होंने जैन साहित्य, धार्मिक शिक्षा, मंदिर पुनर्निर्माण और सामाजिक सुधारों में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनके प्रयासों से न केवल जैन मुनि परंपरा पुनर्जीवित हुई बल्कि आधुनिक जैन धर्म की समझ और अभ्यास को भी नई दिशा मिली.

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