आचार्य शांतिसागर: दिगंबर मुनि परंपरा के अग्रदूत

महावीर सांगलीकर

jainway@gmail.com

आचार्य श्री शांतिसागर जी (1872–1955) जैन दिगंबर संप्रदाय के एक महान आचार्य थे. वे 20वीं सदी में अपने संप्रदाय के पहले आचार्य और प्रमुख संत थे. उन्होंने में पारंपरिक दिगंबर तपस्विता को पुनर्जीवित किया और जैन परंपरा के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

प्रारंभिक जीवन और आध्यात्मिक रुझान

आचार्य शांतिसागर जी का जन्म 1872 में कर्नाटक के बेलगावी जिले के भोज गांव में हुआ था. उनका जन्म नाम सातगौडा था. उनके पिता किसान थे. नौ वर्ष की उम्र में सातगौडा विवाह हुआ, लेकिन छह महीने बाद उनकी पत्नी का निधन हो गया.

जैन शिक्षाओं के प्रति उनकी रुचि बचपन से ही थी, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने तीर्थयात्राएं शुरू कीं. 1905 में, वे अपनी बहन के साथ प्रसिद्ध दिगंबर तीर्थ सम्मेद शिखरजी की यात्रा पर गए. 1912 में माता-पिता के निधन के बाद वे श्रवणबेलगोला चले गए, जो एक प्रमुख जैन तीर्थस्थल है.

संन्यास दीक्षा और तपस्वी जीवन

1918 में श्रवणबेलगोला में उन्होंने देवप्पा (देवेन्द्रकीर्ति) स्वामी जी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की. इसके बाद, उन्होंने तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा के सामने ऐलक दीक्षा ली. लगभग 1920 में, उन्होंने दिगंबर मुनि के रूप में संन्यास धारण किया. 1922 में, कर्नाटक के बेलगावी जिले के यरनाल गांव में, उन्हें “शांतिसागर” नाम दिया गया.

उन्होंने दिगंबर संन्यास परंपरा का कठोरता से पालन किया और सभी सांसारिक वस्तुओं, यहां तक कि वस्त्रों का भी त्याग कर दिया. उनका जीवन गहन तपस्या, ध्यान और अहिंसा के सिद्धांतों का प्रतीक था. वे हमेशा पैदल यात्रा करते थे और केवल एक बार भोजन ग्रहण करते थे.

दिगंबर मुनि परंपरा का पुनर्जागरण

आचार्य शांतिसागर जी ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्हें “चरित्र चक्रवर्ती” (सद्गुणों के सम्राट), “मुनिराज” (साधुओं के राजा) और “शीलसिंधु” (आचरण का महासागर) जैसी उपाधियां दी गईं. उन्होंने जैन अनुयायियों के बीच धार्मिक जागरूकता बढ़ाई और दिगंबर मुनि परंपरा को पुनर्स्थापित किया.

उन्होंने ब्रिटिश शासन द्वारा दिगंबर मुनियों पर लगाए गए प्रतिबंधों का विरोध करने के लिए अनशन भी किया. उन्होंने अहिंसा (अहिंसा), सत्य (सत्य), अपरिग्रह (संपत्ति का त्याग) और कठोर मुनि व्रतों पर विशेष ध्यान केंद्रित किया.

भारत भर में विहार

आचार्य शांतिसागर जी 20वीं सदी के पहले दिगंबर जैन मुनि थे, जिन्होंने पूरे भारत में व्यापक रूप से विहार किया. उनके प्रमुख प्रवास स्थान इस प्रकार हैं:

1924: समडोळी (महाराष्ट्र के सांगली शहर के पास) में आचार्यपद दिया गया.

1925: कुम्भोज नगर में उपस्थित.

1926: श्रवणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक में भाग लिया.

1927: बाहुबली, महाराष्ट्र और फिर नागपुर का दौरा किया.

1928-1930: मध्य और उत्तर भारत में यात्रा, जबलपुर, सागर, ग्वालियर, आगरा, हस्तिनापुर और दिल्ली गए.

1931-1939: पश्चिम भारत की यात्रा, जयपुर, गुजरात और महाराष्ट्र में प्रवास, “चारित्र्य चक्रवर्ती” की उपाधि दी गई.

1940-1950: महाराष्ट्र में शोलापुर, फलटन और लोणंद का प्रवास.

अपनी यात्राओं के दौरान, उन्होंने अनेक कठिनाइयों का सामना किया. उत्तर प्रदेश के राजाखेड़ा में उन पर हिंसक भीड़ ने हमला किया, लेकिन वे अपने संदेश के प्रचार से पीछे नहीं हटे.

ब्रिटिश शासन का विरोध और चुनौतियां

ब्रिटिश शासन के दौरान, दिगंबर मुनियों को नग्न रहने की परंपरा के कारण कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा. आचार्य शांतिसागर जी ने इन प्रतिबंधों का कड़ा विरोध किया और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अनशन किया. उनके शांतिपूर्ण और दृढ़ रुख ने उन्हें व्यापक सम्मान दिलाया.

सामाजिक परिवर्तन और अन्य समुदायों के विरोध के बावजूद, वे अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे और अनेक जैन संस्थानों को सुदृढ़ किया.

अंतिम समय और संल्लेखना

1955 में आचार्य शांतिसागर जी महाराष्ट्र के कुंथलगिरी (जिला धाराशिव) पहुंचे, जहां उन्होंने संल्लेखना (संथारा, व्रत द्वारा मृत्यु) स्वीकार की. उन्होंने 35 दिनों तक उपवास किया, जिसमें अंतिम कुछ दिनों तक केवल जल ग्रहण किया और फिर उसे भी त्याग दिया. 18 सितंबर 1955 को सुबह 6:50 बजे, उन्होंने समाधि प्राप्त की. उनकी मृत्यु को जैन अनुयायियों ने गहरी श्रद्धा के साथ देखा और इसे आत्मसंयम और आध्यात्मिकता की मिसाल माना गया.

प्रसिद्ध विद्वान पद्मनाभ जैनि ने लिखा कि उनकी संल्लेखना महावीर स्वामी द्वारा निर्धारित आदर्श संन्यास मार्ग का सही रूप थी. उनके अंतिम क्षण जैन ग्रंथों के जाप और गहरी चेतना के साथ बीते.

परंपरा और उत्तराधिकारी

आचार्य शांतिसागर जी ने अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकार आचार्य वीरसागर जी (1856–1957) को सौंपा. उनके बाद, आचार्य शिवसागर जी (1888–1969), आचार्य धर्मसागर जी (1914–1987), आचार्य अजितसागर जी (1987–1990) और वर्तमान आचार्य वर्धमानसागर जी (1990 से) इस परंपरा का नेतृत्व कर रहे हैं.

उनकी शिक्षाओं का प्रभाव जैन मठवासी जीवन तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने आम लोगों को भी धार्मिक शिक्षा, मंदिर उपासना और नैतिक जीवन के लिए प्रेरित किया. उनके प्रयासों से जैन ग्रंथों का संरक्षण और दस्तावेजीकरण भी संभव हुआ.

उनकी शिक्षाओं ने कई भावी मुनियों को प्रेरित किया, जिनमें प्रमुख रूप से आचार्य विद्यसागर जी शामिल हैं. उनकी विचारधारा आज भी जैन धर्म के पालन में मार्गदर्शक बनी हुई है.

कर्तृत्व

उन्होंने दिगंबर जैन परंपरा का व्यापक पैमाने पर पुनरुज्जीवन किया, दिगंबर मुनियों के विहार पर जो प्रतिबंध थे उनका विरोध किया और प्रतिबंधों को हटाया और मृतप्राय दिगंबर जैन समाज में चेतना लायी.

आचार्य शांतिसागर जी का जीवन त्याग, आत्मसंयम और अहिंसा का प्रतीक था. उन्होंने दिगंबर परंपरा को पुनर्जीवित करने और उसे मजबूती प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके उपदेश आज भी प्रासंगिक हैं और साधु-साध्वियों सहित आम जैन अनुयायियों के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं.

आज भी, कुंथलगिरी में स्थित उनकी समाधि एक प्रमुख तीर्थस्थल है, जहां श्रद्धालु उनके दिव्य जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा लेने के लिए आते हैं.

आचार्यपद की शताब्दी के अवसर पर भारतीय डाक विभाग द्वारा प्रकाशित डाक टिकट
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