शैलेन्द्र कुमार जैन, लखनऊ
(यह लेख इतिहासकार शैलेन्द्र कुमार जैन द्वारा दिए गए एक लेक्चर का संक्षिप्त रूप है. लेखक आदिनाथ मेमोरियल ट्रस्ट, लखनऊ के अध्यक्ष है).
भारतीय सभ्यता को विश्व की प्राचीनतम जीवित सभ्यता कहा जाता है. इसकी विशेषता केवल इसकी प्राचीनता नहीं, बल्कि उसका सतत विकास, समन्वयशीलता और गहरी सांस्कृतिक चेतना है. इस सभ्यता के निर्माण में जिन व्यक्तित्वों ने आधारभूत भूमिका निभाई, उनमें भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) का स्थान अत्यंत विशिष्ट है. जैन परंपरा उन्हें प्रथम तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करती है, किंतु उनका महत्व केवल जैन धर्म तक सीमित नहीं है. वे भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यवस्था के आदिप्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हैं.
ऋषभदेव और भारतीय सभ्यता
भगवान ऋषभदेव का जन्म स्थान अयोध्या माना जाता है. भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम जीवित संस्कृतियों में से एक है, जिसका समर्थन सिंधु घाटी सभ्यता के पुरातात्विक प्रमाणों और वैदिक साहित्य से होता है. भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान और विज्ञान का केंद्र रहा है. यजुर्वेद में भारतीय संस्कृति को विश्व की प्रथम संस्कृति कहा गया है.
महापुराण और भागवत पुराण जैसे ग्रंथों से यह स्पष्ट होता है कि भोगभूमि को कर्मभूमि में परिवर्तित करने का कार्य भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या से ही प्रारंभ किया. भविष्यदृष्टा मनु महाराज द्वारा ऋषभदेव को आदिदेव और संसार को चरित्र की शिक्षा देने वाला बताया गया है. विश्व धर्म संसद के अध्यक्ष रहे प्रभाकर मिश्र तथा मुंडकोपनिषद के मंत्र भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि ऋषभदेव कृषि, वाणिज्य, शिल्प और ब्रह्मविद्या के प्रवर्तक थे.
ज्ञान, कला और सामाजिक व्यवस्था
जैन ग्रंथों के अनुसार ऋषभदेव के सौ पुत्र थे. उन्होंने भरत को अर्थशास्त्र, वृषभसेन को संगीत, अनंत विजय को चित्रकला, विश्वकर्मा को वास्तु विद्या, बाहुबली को कामशास्त्र और आयुर्वेद का ज्ञान दिया. अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुंदरी को अंक विद्या और लिपि विद्या का ज्ञान दिया. पुरुषों को 72 और स्त्रियों को 68 कलाओं का उपदेश दिया.
श्रवण बेलगोला तथा आदि पुराण में इन शिक्षाओं का स्पष्ट वर्णन मिलता है. पाषाण विज्ञान के विद्वानों के अनुसार ऋषभदेव का युग कृषि युग था, जो पाषाण युग के बाद आता है. इसी कारण उन्हें मानव को सभ्य बनाने वाला प्रथम उपदेशक कहा जाता है.
ऋषभदेव और इक्ष्वाकु वंश
के. बी. फिरोदिया, काका साहब कालेलकर जैसे विद्वानों ने माना है कि विवाह व्यवस्था, पाकशास्त्र, गणित, लेखन और संस्कृति के बीज ऋषभदेव द्वारा बोए गए. उन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का आचरण कर भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप को स्थापित किया.
नवीन ऐतिहासिक अनुसंधानों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति के निर्माण में वैदिक और श्रमण परंपराओं की संयुक्त भूमिका रही है. इस संदर्भ में इक्ष्वाकु परंपरा अत्यंत प्राचीन, प्रतिष्ठित और प्रभावशाली रही है. जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परंपराओं में इक्ष्वाकु वंश का उल्लेख मिलता है.
ऋग्वेद, अथर्ववेद, रामायण, ब्रह्मांड पुराण और हरिवंश पुराण में इक्ष्वाकु वंश की महिमा का वर्णन है. आदि पुराण में ऋषभदेव को इक्ष्वाकु वंशी और जगत में श्रेष्ठ बताया गया है.
अयोध्या, राम और जैन परंपरा
जैन परंपरा में यह मान्यता है कि वाल्मीकि रामायण के राम भी इक्ष्वाकु कुल में जन्मे थे, जिसका मूल संबंध ऋषभदेव से था. इक्षु (गन्ना) से संबंधित दो घटनाओं के कारण इस वंश का नाम इक्ष्वाकु पड़ा. इसी वंश की 112 पीढ़ियों ने अयोध्या में शासन किया.
राम, बुद्ध, चंद्रगुप्त मौर्य और खारवेल जैसे महान व्यक्तित्वों को भी इक्ष्वाकु परंपरा से जोड़ा गया है. जैन साहित्य में प्रथम पाँच तीर्थंकरों सहित अनेक तीर्थंकरों का जन्म इसी वंश में बताया गया है.
पुरातात्विक प्रमाण
अयोध्या और उसके आसपास ऋषभदेव से संबंधित अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं. शाहजूरण का टीला, मणि पर्वत, अनंतनाथ की टोक, ग्रेवेयर और ब्लैकवेयर मृदभांड, 2400 वर्ष पुरानी जैन प्रतिमाएं, नंद वंश द्वारा निर्मित स्तूप, सातवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की तीर्थंकर मूर्तियां इस परंपरा की ऐतिहासिकता को पुष्ट करती हैं.
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में नग्न योगी की मूर्तियां और बैल चिह्न वाली मुद्राएं मिली हैं, जिन्हें ऋषभदेव परंपरा से जोड़ा जाता है. इससे यह सिद्ध होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता और ऋषभदेव की संस्कृति में गहरा संबंध था.
ऋषभदेव का काल निर्धारण
विभिन्न विद्वानों और नवीन वैज्ञानिक शोधों के आधार पर ऋषभदेव का काल 7000 से 9000 ईसा पूर्व तक माना जा रहा है. अयोध्या के आसपास लोरा देवा, जूसी और हरदा कोटवा से प्राप्त प्राचीन धान के अवशेष इस तिथि को और अधिक प्रामाणिक बनाते हैं.
निष्कर्ष
इस प्रकार साहित्यिक, दार्शनिक और पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि भगवान ऋषभदेव भारतीय सभ्यता के आद्य प्रवर्तक थे. अयोध्या, इक्ष्वाकु वंश और ऋषभदेव का संबंध भारतीय संस्कृति की मूल चेतना से जुड़ा हुआ है. यह परंपरा न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी प्राचीन काल से मान्य रही है.
भगवान ऋषभदेव, नाभिराज और उनके युग से जुड़ी परंपराएं आज भी भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन की आधारशिला बनी हुई हैं.
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