
महावीर सांगलीकर
भामाशाह (1547-1600) भारतीय इतिहास की एक प्रतिष्ठित हस्ती हैं, जो अपनी सैन्य नेतृत्व, उदारता, अटूट निष्ठा और महाराणा प्रताप के सलाहकार व सेनापति के रूप में जाने जाते हैं. राजस्थान के पाली जिले के सादड़ी गांव में जन्मे भामाशाह का जीवन और उनकी विरासत आज भी प्रेरणा देती है. उनकी आर्थिक सहायता और रणनीतिक सूझबूझ ने मेवाड़ की स्वतंत्रता और गौरव को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
भामाशाह का जन्म 29 अप्रैल 1547 को एक प्रतिष्ठित ओसवाल जैन परिवार में हुआ था. उनके पिता भारमल मेवाड़ के राजा उदय सिंह (द्वितीय) के अधीन कोषाध्यक्ष और रणथंभौर किले के शासक थे. बचपन से ही भामाशाह को वफादारी, सेवा और आर्थिक प्रबंधन के मूल्य सिखाए गए, जो आगे चलकर उनके प्रशासनिक और सैन्य कार्यों में काम आए. भामाशाह छोटे भाई ताराचंद भी मेवाड़ के लिए समर्पित थे.
महाराणा प्रताप के संघर्ष में भूमिका
हल्दीघाटी के युद्ध (1576) के बाद महाराणा प्रताप को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा. अरावली की पहाड़ियों में संघर्षरत प्रताप और उनकी सेना के पास न धन था, न संसाधन. इस कठिन समय में भामाशाह ने अपनी पूरी संपत्ति महाराणा प्रताप को दान कर दी. यह धन इतना था कि इससे 25,000 सैनिकों की सेना को 12 वर्षों तक चलाया जा सकता था. उनकी इस उदारता ने उन्हें “दानवीर” की उपाधि दिलाई.
ज्यादातर लोग भामाशाह को केवल दानवीर के रूप में जानते हैं, लेकिन वह दानवीर से ज्यादा एक शूरवीर थे, इस बात को हमें हमेशा याद रखना होगा.
भामाशाह ने न केवल आर्थिक सहायता दी, बल्कि स्वयं भी कई युद्धों में भाग लिया. हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी उन्होंने मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए महाराणा प्रताप का 12 वर्षों तक सहयोग किया. भामाशाह ने गुजरात, मालवा और मेवाड़ क्षेत्रों में सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया, जिससे मेवाड़ को प्रचुर मात्रा में धन-संपदा मिली. उन्होंने महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह के साथ मालपुरे में मुगल खजाने को जब्त करके मेवाड़ की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया.
सैन्य अभियान और रणनीतिक योगदान
भामाशाह ने मेवाड़ की सेना के लिए गुरिल्ला युद्ध तकनीक को अपनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने पहाड़ी इलाकों का फायदा उठाकर मुगल सेना पर छापामार हमले करने की रणनीति विकसित की.
भामाशाह कई युद्ध अभियानों में शामिल हुए. उनमें से कुछ अभियानों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है:
हल्दीघाटी का युद्ध
महाराणा प्रताप के जीवन का यह एक महत्वपूर्ण युद्ध था. यह युद्ध महाराणा प्रताप की सेना और मुगलों की सेना के बीच लढा गया. इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना के एक विभाग का नेतृत्व भामाशाह ने किया था. इस युद्ध में उनके के भाई ताराचंद ने भी हिस्सा लिया था.
दिवेर का युद्ध
सन 1582 के विजयादशमी के दिन इस युद्ध में भामाशाह ने महाराणा प्रताप के साथ मिलकर मुगल सेना को निर्णायक रूप से हराया, जिससे मेवाड़ की स्वतंत्रता को फिर से स्थापित किया जा सका. इस युद्ध में अकबर के 36 हजार सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया. मेवाड में मुगलों की सभी चौकियों को मुक्त किया गया.
मालवा और गुजरात अभियान:
भामाशाह और अमर सिंह (महाराणा प्रताप के पुत्र) ने मालवा में कई आक्रमण किए और मुगल खजाने को जब्त करके मेवाड़ की सेना को सशक्त किया. उन्होंने बादशाह अकबर के मेवाड़ को अधीन बनाने के प्रयासों को निष्फल कर दिया, मुगल आधिपत्य से मेवाड़ के उस मैदानी इलाके को पुनः जीत लिया, जिसको अकबर ने 1568 ई. में चितौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद अपने अधीन कर लिया था. महाराणा प्रताप के इस दीर्घकालीन छापामार युद्ध की महत्वपूर्ण घटनाओं के साथ भामाशाह का नाम जुड़ा हुआ. वह मेवाड़ी सेना के एक भाग का सेनापति रहे. भामाशाह अपनी सैन्य टुकड़ी लेकर मुगल थानों, काफिलों एवं मुगल सैन्य टुकड़ियों पर हमला करके मुगल जन-धन को वर्वाद करते थे और धन एव शस्त्रास्त्र जब्त करके लाते थे.
भामाशाह ने कई बार शाही इलाकों पर आक्रमण किये और वहां से लूट कर मेवाड़ के स्वतंत्रता-संघर्ष के लिए धन और साधन प्राप्त किये. ये आक्रमण गुजरात, मालवा, मालपुरा, और मेवाड़ की सरहद पर स्थित अन्य मुगल इलाकों में किये जाते थे.
1578 ई में मुगल सेनापति शाहबाज खान द्वारा कुम्भलगढ़ फतह करने के कुछ समय बाद भामाशाह के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना ने मालवा पर जो आकस्मिक धावा किया और मेवाड़ के लिए धन और साधन प्राप्त किये, वह इतिहास-प्रसिद्ध घटना है.
महाराणा प्रताप को अपने दीर्घकालीन संघर्ष की बड़ी सफलता 1587 ई. में मिली, जब चित्तौड़ और मांडलगढ़ को छोड़कर शेष मेवाड़ के हिस्सों पर उनका पुनः अधिकार हो गया. इस विजय अभियान में उनके प्रधान और सेनापति भामाशाह की प्रधान भूमिका रही.
भामाशाह की कुशल रणनीति के चलते मेवाड़ के कुंभलगढ़ और उदयपुर महत्वपूर्ण किले वापस राजपूतों के नियंत्रण में आए.

मेवाड़ की सेना को सशक्त बनाया
भामाशाह ने सेना को आर्थिक और रसद सहायता प्रदान करने के अलावा, नई युद्ध रणनीतियों को भी लागू किया, जिससे मेवाड़ की सेना लंबे समय तक संघर्ष कर सकी. उन्होंने घुड़सवार सेना, तोपखाने और तलवारबाजों की इकाइयों को मजबूत किया.
युद्ध के बाद पुनर्निर्माण कार्य:
युद्धों के दौरान नष्ट हुए गांवों और किलों के पुनर्निर्माण में भामाशाह की आर्थिक सहायता महत्वपूर्ण रही.
किसानों और व्यापारियों को वित्तीय सहायता देकर अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने का कार्य किया.
स्वामीनिष्ठा और परोपकार
भामाशाह की स्वामिभक्ति को प्रकट करने वाली एक अन्य ऐतिहासिक घटना का उल्लेख मिलता है. बादशाह अकवर अपने साम्राज्य की सुदृढ़ता एवं विस्तार के लिए भेद-नीति का सहारा लेकर राजपूत राजाओं एवं योद्धाओं को एक दूसरे के विरुद्ध करके तथा राजपूत राज्यों के भीतर वान्धवों एवं रिश्तेदारों के बीच पारस्परिक कलह पैदा करके अपने दरवार में उच्च पद, मनसब आदि देने का प्रलोभन देता था. जब अकवर की महाराणा प्रताप को परास्त करने की सभी कोशिशें नाकामयाब हो गई तो उसने प्रताप के प्रधान भामाशाह को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया, लेकिन भामाशाह अपने संकल्प से अडिग रहे. .
महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद भी उन्होंने उनके पुत्र अमर सिंह प्रथम का साथ दिया और उन्हें 2 करोड़ रुपये का दान दिया, जिसका उल्लेख खुम्मान रासो में मिलता है.

युद्ध के अलावा, भामाशाह समाज सेवा के लिए भी जाने जाते हैं. उन्होंने मंदिरों, विद्यालयों और जन कल्याण योजनाओं के लिए अपना योगदान दिया. विशेष रूप से, उन्होंने और उनके भाई ताराचंद ने माउंट आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिर के निर्माण में सहायता की. उन्होंने उदयपुर में जावर माता मंदिर का भी निर्माण करवाया.
भामाशाह की उदारता को निम्नलिखित पंक्तियों में अमर कर दिया गया है:
वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला.उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला..
“धन्य है वह भूमि जहां भामाशाह जैसे महापुरुष जन्मे.उनके उदार कार्यों की महिमा को समय भी नहीं मिटा सकता.”
विरासत और सम्मान
भामाशाह के योगदान को आज भी राजस्थान और देशभर में सम्मान दिया जाता है. उनके नाम पर कई स्मारक और पुरस्कार स्थापित किए गए हैं:
- भामाशाह स्मारक (चित्तौड़गढ़), जहां उनकी हवेली आज भी मौजूद है.
- मेवाड़ महाराणा चैरिटेबल फाउंडेशन ने “भामाशाह पुरस्कार” शुरू किया है, जो राजस्थान के विश्वविद्यालयों के चुने हुए विभागों में सबसे ज्यादा अंक लाने वाले छात्रों को दिया जाता है. यह पुरस्कार निस्वार्थ बलिदान, कुशल वित्तीय प्रबंधन और कर्तव्य के प्रति समर्पण के सम्मान में दिया जाता है
- राजस्थान सरकार की योजनाएं, जो भामाशाह के नाम से चलाई जाती हैं, जैसे भामाशाह कार्ड योजना.
- छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा दानवीर भामाशाह सम्मान, जो समाज सेवा में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है.
- भामाशाह के जीवन पर आधारित 1926 की एक मूक फिल्म दीवान भामाशाह को मोहन दयाराम भावनानी ने निर्देशित किया था. इसके अलावा, 2017 में भामाशाह नाम से एक और फिल्म भी रिलीज़ हुई थी.
- सन 2000 में भारतीय डाक विभाग ने भामाशाह पर एक डाक टिकट जारी किया.

भामाशाह केवल एक कोषाध्यक्ष या मंत्री ही नहीं थे, बल्कि वे महाराणा प्रताप के संघर्ष के स्तंभ थे. उनकी निष्ठा, परोपकार और बलिदान ने मेवाड़ को कभी झुकने नहीं दिया. उनका जीवन यह प्रमाणित करता है कि समर्पण और देशभक्ति के साथ कोई भी इतिहास में अमर हो सकता है.
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