
महावीर सांगलीकर
जैन धर्म: एक बेहतर विकल्प…….
भारत में दलित और आदिवासी समाज एक महत्वपूर्ण सामाजिक समूह हैं, जिनका अस्तित्व सदियों से अनेक सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक संघर्षों से गुजरा है. परंपरागत रूप से, दलित समाज के अधिकांश लोग हिंदू धर्म का पालन करते आए हैं. लेकिन सामाजिक भेदभाव और जातिगत अत्याचारों के चलते, इनमें से लाखों लोगों ने इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म को अपनाया है.
हाल के दशकों में विशेष रूप से बौद्ध धर्म को अपनाने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है, जिसका मुख्य कारण डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित नवयान बौद्ध धर्म का प्रभाव रहा है.
धर्म परिवर्तन: एक व्यक्तिगत निर्णय
धर्म एक व्यक्ति का निजी विषय होता है और इसे अपनाने या न अपनाने का निर्णय पूर्णतः स्वतंत्रता के साथ लिया जाना चाहिए. किसी भी प्रकार के सामाजिक दबाव, आर्थिक प्रलोभन या राजनीतिक उद्देश्यों के आधार पर धर्म परिवर्तन करना उचित नहीं है. यदि कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक, नैतिक और बौद्धिक विकास के लिए किसी अन्य धर्म को अपनाने का निर्णय लेता है, तो यह उसकी स्वेच्छा पर निर्भर होना चाहिए. धर्म केवल किसी संगठित धार्मिक परंपरा का हिस्सा बनने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की आंतरिक चेतना, आध्यात्मिकता और जीवनशैली से भी जुड़ा हुआ है.
संघठित धर्म अपनाने की आवश्यकता
ऐसे बुद्धिजीवी जो तर्क, विज्ञान और आत्मनिरीक्षण पर जोर देते हैं, उनके लिए किसी भी संगठित धर्म को अपनाना अनिवार्य नहीं है. वे केवल आध्यात्मिक (Spiritual) रह सकते हैं या वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपना सकते हैं.
लेकिन आम समाज के लिए धर्म एक सांस्कृतिक, नैतिक और सामुदायिक आधार प्रदान करता है, जो उनके सामाजिक और मानसिक कल्याण में सहायक होता है. इसलिए, यदि कोई धर्म परिवर्तन की ओर अग्रसर हो रहा है, तो उसे उस धर्म के दर्शन, संस्कृति, रीति-रिवाज, इतिहास और अनुयायियों के जीवन स्तर को समझना आवश्यक है.
संघठित धर्म अपनाने का एक फायदा यह होता है उस धर्म के अनुयायियों में एक सहयोग की भावना होती है, जिसका फायदा सभी अनुयायियों को मिलता रहता है. यह फायदा शिक्षा, व्यवसाय, नौकरियां आदि कई क्षेत्रों में हो जाता है.
बौद्ध धर्म का प्रभाव और उसकी चुनौतियां
पिछले कुछ दशकों में दलित समाज के बीच बौद्ध धर्म को अपनाने की प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ी है. यह धर्म निसंदेह महान और तर्कसंगत है, लेकिन इसके प्रचार-प्रसार में कई बार हिंदू धर्म के प्रति नकारात्मक भावना को प्रमुखता दी जाती है. इसके चलते, बौद्ध धर्म अपनाने वाले लोग हिंदू समाज के प्रति गहरी नाराजगी और प्रतिशोध की भावना रखने लगते हैं. वास्तव में, बौद्ध धर्म का प्रचार अब केवल एक धार्मिक परिवर्तन नहीं बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन का स्वरूप ले चुका है.
इस कारण कई दलित और आदिवासी ऐसे भी हैं जो न तो बौद्ध धर्म अपनाना चाहते हैं और न ही हिंदू धर्म में रहना चाहते हैं, क्योंकि उनके साथ भेदभाव और असमानता की समस्याएं बनी रहती हैं.
जैन धर्म: एक बेहतर विकल्प…….
ऐसे दलित और आदिवासियों के लिए जैन धर्म एक श्रेष्ठ विकल्प हो सकता है. जैन धर्म एक शांतिपूर्ण, अहिंसक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित धर्म है, जिसमें जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता. इस धर्म को अपनाने से न केवल उनकी जीवनशैली में सुधार होगा, बल्कि वे एक शांतिपूर्ण और व्यसनमुक्त समाज की ओर अग्रसर होंगे.
इसके अलावा, हिंदू और जैन धर्म के बीच कोई संघर्ष नहीं है. कई हिंदू परिवारों ने भी जैन धर्म के सिद्धांतों को अपनाया है. आज भारत में 20,000 से अधिक जैन साधु-साध्वियां हैं, जिनमें से कई जन्म से हिंदू, दलित या आदिवासी थे.
इसलिए, जो दलित और आदिवासी हिंदू धर्म से अलग होना चाहते हैं, लेकिन सामाजिक कटुता और राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित धर्म परिवर्तन से बचना चाहते हैं, उनके लिए जैन धर्म एक बेहतरीन विकल्प हो सकता है.
जैन धर्म अपनाने के फायदे
अहिंसक जीवनशैली
जैन धर्म का मूल सिद्धांत अहिंसा है, जिसका अर्थ है न केवल शारीरिक हिंसा से बचना, बल्कि विचारों और वाणी से भी किसी को आहत न करना. यह सिद्धांत समाज में सौहार्द्र और शांति को बढ़ावा देता है. जैन धर्म अपनाने से व्यक्ति का स्वभाव करुणामय और संवेदनशील बनता है, जिससे पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य बना रहता है. अहिंसक दृष्टिकोण से पर्यावरण की भी रक्षा होती है, क्योंकि यह जीव-जंतुओं और प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता विकसित करता है.
व्यसनमुक्त समाज
जैन धर्म मांसाहार, शराब, तंबाकू और अन्य व्यसनों से दूर रहने की शिक्षा देता है. यह न केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के लिए भी आवश्यक है. व्यसनमुक्त समाज में अपराध, घरेलू हिंसा और अन्य सामाजिक बुराइयाँ कम होती हैं. जैन धर्म अपनाने से व्यक्ति में आत्मसंयम और अनुशासन की भावना विकसित होती है, जिससे उसका जीवन संतुलित और स्वस्थ बना रहता है.
शिक्षा और आत्मनिर्भरता
जैन समुदाय शिक्षा और व्यापार के क्षेत्र में अत्यंत प्रगतिशील रहा है. जैन धर्म अपनाने वाले दलित और आदिवासी समाज को शिक्षा के प्रति जागरूकता और आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का अवसर मिलता है. जैन धर्म में अध्ययन और ज्ञानार्जन को अत्यधिक महत्व दिया जाता है, जिससे किसी भी समाज का बौद्धिक और आर्थिक विकास संभव होता है. जैन धर्म व्यापारिक दृष्टिकोण से भी प्रेरित करता है, जिससे व्यक्ति आत्मनिर्भर बनता है और गरीबी से ऊपर उठ सकता है.
सामाजिक प्रतिष्ठा
जैन धर्म अपनाने के बाद व्यक्ति की सामाजिक पहचान बदल सकती है. दलित और आदिवासी समाज के लोगों को जैन धर्म में समानता और सम्मान प्राप्त होता है. जैन धर्म जाति-व्यवस्था को बढ़ावा नहीं देता, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति और नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता देता है. इससे व्यक्ति को एक नई सामाजिक पहचान मिलती है, जो उसे आत्मगौरव और आत्मसम्मान का अनुभव कराती है.
संगठित धर्म के सकारात्मक पहलू
जैन धर्म में किसी भी जाति, धर्म या समुदाय के व्यक्ति को अपनाने की स्वतंत्रता होती है. इसकी शिक्षाएँ वैज्ञानिक, तर्कसंगत और आत्मविकास पर केंद्रित होती हैं. जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और मुक्ति प्राप्त करना है, जो किसी भी मनुष्य के लिए खुला है. इसका धार्मिक ढांचा संगठित और अनुशासित है, जिससे व्यक्ति को सही मार्गदर्शन मिलता है. जैन धर्म अपनाने से व्यक्ति को एक शांतिपूर्ण और संतुलित जीवन जीने का अवसर मिलता है.
क्या यह संभव है?
यह कोई कल्पना मात्र नहीं है. मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में लाखों दलितों और आदिवासियों ने जैन धर्म को अपनाया है और आज वे एक प्रतिष्ठित और संपन्न जीवन जी रहे हैं. उनके समुदायों को अब ‘वीरवाल जैन’ और ‘धर्मपाल जैन’ के रूप में पहचाना जाता है. गुजरात में लाखों आदिवासियों ने जैन धर्म अपनाकर सामाजिक और आर्थिक स्तर पर उन्नति प्राप्त की है. महाराष्ट्र में मातंग वंश के हजारों लोग जैन धर्म अपना रहें हैं.


कैसे अपनाएं जैन धर्म?
जैन धर्म में प्रवेश के लिए किसी विशेष अनुष्ठान या स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती, ना ही इसे सामूहिक रूप से अपनाने की जरुरत होती है. इसे व्यक्तिगत रूप से अपनाया जाता है इसके सिद्धांतों का पालन किया जाताहै, जैसे:
- पांच अणुव्रतों (छोटे व्रत) का पालन: अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह.
- व्यसनमुक्त जीवन: नशा, मांसाहार आदि से दूर रहना.
- स्वाध्याय और आत्मचिंतन: धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन और ध्यान करना.
- समाज सेवा: परोपकार और नैतिक आचरण को अपनाना, शिक्षा, आरोग्य, जीवदया आदि के लिए दान करना.
जैन धर्म अपनाने से दलित और आदिवासी समाज को न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक शांति प्राप्त होगी, बल्कि सामाजिक और आर्थिक उन्नति भी संभव होगी. यह धर्म एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देता है और किसी भी प्रकार के द्वेष को बढ़ाने की बजाय आत्मशुद्धि और आत्मोन्नति पर जोर देता है.
इस सन्दर्भ में आपके कोई प्रश्न हो तो आप निचे कॉमेंट कर सकते हैं, या फिर jainway@gmail.com इस ईमेल पर भेज सकते हैं.
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