
महावीर सांगलीकर
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नोट (यहां दिगंबर-श्वेताम्बर का अर्थ जैन धर्म के विभिन्न संप्रदाय, जैसे दिगंबर, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी आदि लेना चाहिए).
जैन समाज मुख्य रूप से दो प्रमुख संप्रदायों में बंटा हुआ है—दिगंबर और श्वेतांबर. हालांकि दोनों संप्रदाय जैन दर्शन के मूल सिद्धांतों को मानते हैं, लेकिन उनके कुछ रीति-रिवाज, परंपराएं, कर्मकांड अलग-अलग हैं. यहां इस बात पर गौर करना होगा कि रीतिरिवाजों में अंतर प्रदेश के कारण है, न कि संप्रदाय के कारण! वास्तवता तो यह है कि एक ही प्रदेश के दिगंबर और श्वेताम्बर समाज के रीतिरिवाज ज्यादातर एक जैसी ही होते है. इसके उलटे, एकही सम्प्रदाय के लेकिन अलग प्रदेश के लोगों के रीतिरिवाज और संस्कृती में काफी अंतर होता है.
उदाहारण के लिए, मारवाड़ के दिगंबर श्वेताम्बर समाज में भाषा, रीतिरिवाज और संस्कृति में विशेष अंतर नहीं होता है. इसके उलटे मारवाड़ का दिगंबर जैन समाज और कर्णाटक का दिगंबर जैन समाज इनके भाषा, रीतिरिवाज और संस्कृति में बड़ा अंतर है. इसी प्रकार मारवाड़ का श्वेताम्बर जैन समाज और गुजरात का श्वेताम्बर जैन समाज भाषा, रीतिरिवाज और संस्कृति में काफी अंतर है.
आधुनिक युग में सामजिक तौर पर दिगंबर और श्वेताम्बर समाज के बीच की खाई कम हो रही है. (भले ही कुछ कलहप्रिय और कट्टरतावादी लोग इस खाई को बढाने की कोशिश करते रहते हैं ). इस खाई को और कम करने के लिए एक अच्छा उपाय यह है कि दिगंबर और श्वेताम्बर समाज में आंतर-सांप्रदायिक विवाह को बढ़ावा मिले.
जैन समाज के लिए ऐसे विवाहों के ढेर सारे फायदे हैं. यह मैं ऐसे कुछ मुख्य फायदे बता रहा हूं…..
जिनेटिक मॉडिफिकेशन हो जाएगा
जैन समाज में लंबे समय से संप्रदाय या जाति के भीतर ही विवाह होते आए हैं, जिससे कुछ आनुवंशिक विकृतियां और स्वभाव-दोष, जैसे संकोच या संकुचित सोच, पीढ़ी दर पीढ़ी बने रहे हैं.
इसका समाधान आंतर-सांप्रदायिक विवाहों में देखा जा सकता है. जब श्वेतांबर, दिगंबर, स्थानकवासी, तेरापंथी जैसे अलग-अलग संप्रदायों के बीच विवाह होते हैं, तो वास्तव में यह विजातीय जैन विवाह होता है, जो वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाभकारी होता है.
ऐसे विवाहों से उत्पन्न संतानों में आनुवंशिक विविधता आती है, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, और वे मानसिक रूप से अधिक जागरूक, संवेदनशील और खुले विचारों वाले बनते हैं. ऐसे बच्चे तेज दिमागवाले होते हैं.
इस प्रकार, विवेकपूर्ण आंतर-सांप्रदायिक विवाह जैन समाज के दीर्घकालिक शारीरिक, मानसिक और सांस्कृतिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी सिद्ध हो जाते हैं.
सांप्रदायिक उदारता बढ जाएगी
दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों के बीच विवाह से जैन समाज में सांप्रदायिक उदारता को बढ़ावा मिलता है. लंबे समय से मौजूद वैचारिक भिन्नताओं और आपसी दूरी को यह विवाह सामाजिक सेतु बनकर कम करने में मदद करते हैं.
भारत में विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों और सैकड़ों लोगों का जुड़ाव होता है. जब अलग-अलग संप्रदायों के युवक-युवती विवाह करते हैं, तो उनके परिवार और रिश्तेदार भी आपस में करीब आते हैं.
ऐसे विवाह आपसी संवाद, समझ और सहिष्णुता को बढ़ाते हैं. लोग यह महसूस करते हैं कि भिन्न मतों के बावजूद वे एक ही धर्म और संस्कृति के अंग हैं, जिससे समाज में समरसता मजबूत होती है.
इन विवाहों से जन्मे बच्चे दोनों परंपराओं को बचपन से अपनाते हैं और जैन धर्म को समग्र रूप से समझते हैं. इससे उनमें अधिक जागरूकता, सहिष्णुता और जुड़ाव पैदा होता है.
जैन परंपरा और मूल्यों का संरक्षण हो जाएगा
आज के सामाजिक और आर्थिक बदलावों में जैन परिवारों को बच्चों के लिए योग्य जीवनसाथी खोजने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. उच्च शिक्षा और करियर के कारण युवा विभिन्न शहरों और देशों में रहते हैं, जिससे संप्रदाय की सीमाओं में रहकर विवाह तय करना कठिन हो गया है.
यदि केवल संप्रदाय को प्राथमिकता दी जाए, तो कई युवा जैनों को जीवनसाथी ढूंढने में समस्या होती है, जिससे वे जैन धर्म से बाहर विवाह की ओर झुक सकते हैं. इससे न केवल परंपराओं पर असर पड़ता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों में जैन मूल्यों की समझ भी कमजोर हो सकती है.
ऐसे में दिगंबर-श्वेतांबर संप्रदायों के बीच विवाह को प्रोत्साहन देना एक व्यावहारिक समाधान है. इससे धर्म का हनन नहीं होता, बल्कि जैन परंपरा के भीतर सामंजस्य बनता है.
इन विवाहों से युवा समाज के भीतर ही जीवनसाथी पा सकते हैं और जैन रीति-रिवाज व जीवनमूल्य घर की संस्कृति में जीवित रह सकते हैं. इससे जैन धर्म केवल पुस्तकों तक सीमित न रहकर जीवनशैली में भी प्रकट होता है.
इस प्रकार, आंतरसांप्रदायिक विवाह न केवल सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करते हैं, बल्कि जैन परंपरा को आधुनिक समय में भी प्रासंगिक बनाए रखते हैं.
बढ़ेगी जैन एकता
जैन समाज में आंतरसाम्प्रदायिक विवाहों से समाज की एकता और सौहार्द मजबूत होता है. जब दिगंबर, श्वेतांबर, स्थानकवासी और तेरापंथी आपस में विवाह करते हैं, तो पारस्परिक समझ और मेलजोल बढ़ता है.
ऐसे विवाहों से आपसी गलतफहमियां और संप्रदायिक मतभेद धीरे-धीरे कम होते हैं. परिवार जब एक-दूसरे की परंपराओं को समझते हैं, तो समावेशी सोच विकसित होती है, जिसका असर सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों में भी दिखता है.
इसके साथ ही, यह विवाह जैन धर्म की व्यापकता और गहराई को समझने में मदद करते हैं। नई पीढ़ी को एक संतुलित दृष्टिकोण मिलता है, जिससे वे पूरे जैन धर्म को अपनाने में सक्षम होते हैं.
समाज में भी यह संदेश जाता है कि विविधता बाधा नहीं, बल्कि सामंजस्य का माध्यम हो सकती है। इससे जैन समाज की एकता और सहिष्णुता अन्य समुदायों के लिए भी प्रेरणा बनती है.
इस प्रकार, आंतरसाम्प्रदायिक विवाह जैन समाज में न केवल भाईचारा बढ़ाते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक समृद्धि को भी मजबूत करते हैं
मजबूत हो जाएगा जैन समाज
आज के समय में दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों के बीच विवाह की आवश्यकता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. ये विवाह न केवल जैन समाज की एकता को बढ़ावा देते हैं, बल्कि जैन समाज को समावेशी और मजबूत बनाते हैं. ऐसे विवाहों के कारण जैन समाज धिक प्रगतिशील, संगठित और सशक्त बन जायेगा. जैन समाज का मजबूत होना हमारे देश के लिए और विश्व के लिए भी एक जरुरी बात है.
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