जैन दर्शन का सार

Jain Darshan

अशोका ऊ सालेचा

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जैन दर्शन में त्याग नहीं होता है, सम्यग दृष्टि होती है

त्याग को आमतौर पर त्यागना यानी कुछ छोड़ देना समझा जाता है. लेकिन जैन दर्शन कहता है कि अगर मन में ममता या मोह बाकी है, तो वह ‘त्याग’ केवल दिखावा है. सम्यग दृष्टि का अर्थ है वस्तु, संबंध, शरीर और संसार को उनकी सच्चाई के साथ देखना. जब देखने का नजरिया बदलता है, तो पकड़ (attachment) अपने आप ढीली हो जाती है.

उदाहरण: एक व्यक्ति बहुत अमीर है, लेकिन उसके मन में यह स्पष्ट है कि “ये सब चीजें स्थायी नहीं हैं”, वह उन्हें भोगते हुए भी उन पर आसक्त नहीं होता. यह सम्यग दृष्टि है. इसके विपरीत, एक संन्यासी सब कुछ छोड़ कर जंगल में चला गया, लेकिन हर समय यही सोचता रहा कि “मैंने कितना बड़ा त्याग किया है”यह त्याग भी उसे बांधता है.

जैन दर्शन में दया नहीं होती है, करुणा होती है

दया में ‘ऊंच-नीच’ की भावना रहती है, जैसे “मैं सक्षम हूं, इसलिए तुम्हारी मदद कर रहा हूं”. लेकिन करुणा में आत्मीयता होती है, “तुम्हारा दुःख मेरा भी है.” करुणा अहंकार को मिटा देती है, जबकि दया अक्सर ‘मैं’ की भावना को पोषित करती है.

उदाहरण: भगवान महावीर ने एक सर्प को देखा जो घायल था और लोगों को डँस रहा था. किसी और ने उसे मारने की सोची, लेकिन महावीर ने करुणा से उसे समझाया और शांत किया. यह करुणा आत्मा की संवेदना से निकली थी, दया नहीं थी.

जैन दर्शन में दान नहीं होता है, प्रेम होता है

अगर कोई दान इसलिए कर रहा है कि लोग तारीफ करें, या पुण्य मिले, तो वह वास्तव में बंधन है. लेकिन प्रेम से दिया गया कुछ भी, चाहे एक शब्द, एक मुस्कान, या एक रोटी, वास्तव में मुक्त करने वाला होता है.

उदाहरण: कोई भिक्षु भोजन मांगता है. एक गृहस्थ उसे भोजन देता है, लेकिन अपने अहंकार के पोषण के लिए. वहीं दूसरा गृहस्थ भले ही थोड़ा ही दे, लेकिन प्रेम से दे, वह कर्म बंधन नहीं बनाता.

जैन दर्शन में तपस्या नहीं होती, 12 तप होते हैं

तपस्या का मतलब केवल शरीर को पीड़ा देना नहीं है. जैन धर्म तप के बाहरी और आंतरिक दोनों रूप बताता है. बाह्य तप से संयम आता है, लेकिन अंतर तप से आत्मा शुद्ध होती है.

उदाहरण: कोई व्यक्ति उपवास कर रहा है लेकिन बार-बार सोच रहा है “मैंने कितना बड़ा व्रत किया”, यह अहंकार है. वहीं कोई साधक मौन रहकर आत्म-निरीक्षण कर रहा है, यह अंतर तप है, जिससे ज्ञान की दृष्टि खुलती है.

जैन दर्शन में अनुशासन, नियम, पच्छखान नहीं होते हैं, विवेक होता है

बाहरी अनुशासन थोपे गए होते हैं, लेकिन विवेक आंतरिक होता है. जब कोई व्यक्ति अपने अनुभव और ज्ञान से यह समझे कि क्या उचित है, और वह खुद ही उसका पालन करे, यही सच्चा आत्म-अनुशासन है.

जैन दर्शन आत्मा की स्वतंत्रता को महत्व देता है, इसलिए विवेक आधारित जीवन को ही श्रेष्ठ माना गया है.बाहरी अनुशासन में डर, दबाव या परंपरा होती है. लेकिन विवेक से किया गया कार्य स्वतःस्फूर्त होता है और टिकाऊ होता है. विवेक आत्मा की जागरूकता से आता है.

उदाहरण: कोई बच्चा अगर डर से झूठ नहीं बोलता, तो वह केवल अनुशासित है. लेकिन जब वह खुद समझता है कि झूठ आत्मा को मैला करता है, तब वह विवेकी बनता है.

जैन दर्शन में व्यक्ति ही स्वयं का कर्ता होता है, कोई ईश्वर नहीं है

जैन धर्म का यह मूल सिद्धांत आत्मनिर्भरता पर आधारित है. यहां कोई भी ‘ईश्वर’ आपकी किस्मत नहीं बदलता. आप जैसा करेंगे, वैसा ही पाएंगे. आत्मा का विकास स्वयं के पुरुषार्थ से होता है. जैन धर्म में कोई सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है. आत्मा स्वतंत्र है और अपने कर्मों की जिम्मेदार स्वयं है. हमें मोक्ष पाने के लिए खुद ही अपने कर्म सुधारने होते हैं.

जैन दर्शन में हम स्वयं ही स्वयं के गुरु होते हैं, दूसरा कोई गुरु नहीं होता है

बाहरी गुरु मार्ग दिखा सकते हैं, लेकिन असली गुरु आपकी आत्मा है. जब आप भीतर झांकते हैं, तो ज्ञान, प्रेरणा, और दिशा वहीं से मिलती है. इसीलिए “आत्मा ही परम गुरु है” का भाव जैन दर्शन का मूल है. बाहरी गुरु केवल संकेत दे सकते हैं, लेकिन यात्रा तो आत्मा को खुद ही करनी होती है. आत्मा ही ज्ञान, विवेक और प्रकाश का स्रोत है.

उदाहरण: जैसे दीपक किसी और दीपक से जल सकता है, लेकिन अंततः उसे खुद ही जलना होता है. ठीक वैसे ही आत्मा का ज्ञान भी भीतर से प्रकट होता है.

भगवान महावीर ने भी कहा: “आप ही अपने रक्षक हैं, कोई और नहीं.”

जैन दर्शन में बंधन नहीं, स्वतंत्रता होती है

संसार में लोग रिश्तों, भोगों और पहचान के बंधन में बंधे रहते हैं. जैन दर्शन कहता है कि आत्मा मूलतः स्वतंत्र है. उसे पहचानने और उसका अनुभव करने से बंधन मिटते हैं. बंधनों से मुक्ति यही मोक्ष की दिशा है . बंधनों से मुक्त होकर आत्मा अपनी पूर्णता में रहती है. यह स्वतंत्रता बाहरी नहीं, भीतरी होती है, जब आप मोह, लोभ, भय से मुक्त हो जाते हैं.

उदाहरण: एक राजा जिसने सब कुछ त्यागा लेकिन भीतर से मोह-मुक्त नहीं हुआ, वह बंधन में है. लेकिन एक गृहस्थ जो जीवन के कर्तव्यों को निभाते हुए भीतर से शांत और स्वतंत्र है, वह मुक्त आत्मा है.

जैन दर्शन में कुछ करना कर्म बंधन है, अकर्म होते हैं

सामान्य दृष्टि में कर्म करना ज़रूरी माना जाता है. लेकिन जैन दर्शन में कहा गया है कि ‘राग-द्वेष के साथ किया गया कोई भी कार्य आत्मा को बांधता है.’ जब हम केवल कर्तव्य भाव से, बिना अपेक्षा के, असंग होकर काम करते हैं, तब कर्म बंधन नहीं होता.

यहां ‘अकर्म’ का अर्थ है, ऐसे कर्म जो राग-द्वेष रहित हों. जब हम बिना किसी स्वार्थ या अपेक्षा के काम करते हैं, तब वे बंधन नहीं बनते.

जैन दर्शन में आत्मा और शरीर अलग-अलग होते हैं

हम अक्सर ‘मैं’ कहकर शरीर की बात करते हैं, लेकिन जैन दर्शन में आत्मा और शरीर का भेद बहुत स्पष्ट है. आत्मा चेतन तत्व है, शरीर जड़. हम अक्सर शरीर को ही ‘मैं’ समझ बैठते हैं, जबकि आत्मा शरीर में रहने वाला स्वतंत्र तत्व है. शरीर जन्म-मरण के चक्र में है, आत्मा नहीं. मोक्ष का अर्थ है, आत्मा का इस शरीर और कर्मों के चक्र से पूरी तरह अलग हो जाना.

उदाहरण: जैसे कोई व्यक्ति गाड़ी चला रहा है, लेकिन वह गाड़ी नहीं है, उसी तरह आत्मा शरीर में रहते हुए भी उससे अलग है.

जैन दर्शन में कर्म निर्जरा की नहीं जाती है, स्वतः होती है

कर्मों को काटने की कोई बाहरी प्रक्रिया नहीं है. जब आत्मा राग-द्वेष से मुक्त होती है, समता में स्थित होती है, तब पुराने कर्म अपने आप जलते हैं, जैसे अग्नि में लकड़ी जलती है. इसे “स्वाभाविक निर्जरा” कहा जाता है. जब आत्मा समत्व में स्थित होती है, तो जैसे धूप में बर्फ अपने आप पिघलती है, वैसे ही पुराने कर्म भी जल जाते हैं. इसे ही “स्वाभाविक निर्जरा” कहा गया है.

जैन दर्शन में धर्म का फल तुरंत मिलता है

सही आचरण से तुरंत मन में शांति, संतोष और हलकापन आता है. यह फल हमें अभी, इसी जीवन में अनुभव होता है. जैन धर्म भविष्य के स्वर्ग या पुनर्जन्म की बजाय वर्तमान में जीने पर ज़ोर देता है. सच्चा धर्म अपनाने से व्यक्ति के व्यवहार में तुरंत परिवर्तन आता है, मन में शांति, सोच में स्पष्टता, और जीवन में सहजता आ जाती है. यह ‘अभी और यहीं’ का फल है.

जैन दर्शन में पुण्य भी कर्म बंधन है

अच्छे कर्म भी आत्मा को बांधते हैं, चाहे वह स्वर्ग का कारण बने. लेकिन मोक्ष के लिए पुण्य और पाप दोनों से ऊपर उठना होता है. इसलिए अंतिम लक्ष्य है कर्म से पूरी मुक्ति. मोक्ष का मार्ग पुण्य और पाप दोनों से परे है. पुण्य स्वर्ग दिला सकता है, लेकिन मोक्ष नहीं.

जैन धर्म में सुख नहीं, शांति और आनंद मिलता है

सुख इंद्रियों से मिलता है, वह क्षणिक होता है. लेकिन शांति आत्मा की स्वभाविक अवस्था है—जो भीतर से आती है और टिकाऊ होती है. यही सच्चा आनंद है. सुख इंद्रियों से जुड़ा होता है—खाना, देखना, सुनना. लेकिन, ये अस्थायी हैं. शांति और आनंद आत्मा के भीतर से आते हैं और कभी खत्म नहीं होते.

जैन धर्म राग को ही हिंसा का मुख्य सेतु मानता है

जब हम किसी चीज़ से राग (मोह या लोभ) करते हैं, तो उसे पाने या बचाने के लिए हिंसा कर बैठते हैं. इसलिए जैन दर्शन कहता है कि राग की जड़ को काटो, हिंसा अपने आप मिट जाएगी. हिंसा तब होती है जब हम किसी चीज़ के लिए लालायित होते हैं. राग यानी मोह. जब वह समाप्त होता है, तब हिंसा की ज़रूरत ही नहीं रह जाती.

जैन धर्म में ज्ञान नहीं, सम्यग ज्ञान होता है

सम्यग ज्ञान का अर्थ है, सही उद्देश्य, सही दृष्टिकोण, और सही भावना के साथ प्राप्त ज्ञान. यह ज्ञान आत्मा को उन्नति की ओर ले जाता है. ज्ञान तभी उपयोगी होता है जब वह सही दिशा में हो, यानी आत्मा की ओर. सम्यग ज्ञान वह है जो अंधकार को मिटा दे और आत्मा को मुक्त करे.

जैन धर्म स्वर्ग को नहीं, मोक्ष को मानता है

स्वर्ग एक अस्थायी सुख है, लेकिन वहां भी आत्मा जन्म-मरण में फंसी रहती है. मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य है, जहां आत्मा हर बंधन से मुक्त होकर पूर्ण स्वतंत्र हो जाती है. स्वर्ग सुखद है लेकिन अस्थायी. मोक्ष स्थायी है, जहां आत्मा पूर्ण रूप से स्वतंत्र और शांत रहती है. जैन धर्म मोक्ष को ही अंतिम मंज़िल मानता है.

जैन दर्शन में शुभ-अशुभ जैसा कुछ भी नहीं होता है

शुभ कार्य भी अगर मोह, अहंकार या फल की अपेक्षा से किए जाएं तो वे भी बंधन बन जाते हैं. इसलिए जैन दर्शन निष्काम, निर्विकारी, समतामय स्थिति को ही श्रेष्ठ मानता है—जहां न शुभ है, न अशुभ, बस स्वभाव में स्थित रहना है. जैन दर्शन कहता है कि किसी भी कार्य में ‘मैं’ की भावना हो, तो वह बंधन है—चाहे वह शुभ हो या अशुभ. सच्चा धर्म तब है जब हम समता में स्थित होकर कार्य करें.

जैन दर्शन कहता है कि हम जैसे हैं, वैसे ही रहना है. हमें बदलना नहीं है

यहां “बदलना नहीं” का मतलब है, बाहरी दिखावे या जबरन अनुकरण की ज़रूरत नहीं है. आत्मा जैसी है, उसी की सच्चाई को पहचानना, स्वीकार करना, और उसमें स्थित रहना ही असली साधना है. यह बदलाव से मना नहीं करता, बल्कि कहता है कि आत्मा जैसी है, वैसी ही पूर्ण है. उसे केवल पहचानने की जरूरत है. जबरन बदलाव या बाहरी दिखावे से कुछ नहीं होता.

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