Jain Surname: जैन सरनेम की वास्तवता

महावीर सांगलीकर

jainway@gmail.com

Jain Surname: उत्तर भारत के ज्यादातर जैनियों ने जैन शब्द को अपना सरनेम बनाया है. अब वह लोग चाहते है कि देश के बाकी हिस्सों के जैन लोग भी अपने नाम के आगे जैन लिखे, बतौर सरनेम के. उनका तर्क है कि सरनेम जैन लगाने से बहुत सारे फायदे हो जाएंगे, जैसे कि जनगणना में जैनियों की संख्या बढ़ेगी, जैन लोग एक दूसरे को सरनेम के कारण जान जाएंगे और जैन एकता बढ़ेगी आदि. लेकिन यह बातें बिलकुल तर्कसंगत नहीं हैं.

Jain Surname: जनगणना, सरनेम और धर्म

जनगणना में आपने आपका सरनेम क्या लिखा है इससे धर्म के अनुयायियों की संख्या गिनी नहीं जाती, बल्कि धर्म के कॉलम में आपने अपना धर्म क्या लिखा है उसकी गिनती की जाती है. जैसे कि आपने अपना सरनेम तो जैन लिखा लेकिन धर्म अगर हिन्दू लिखा तो आपको हिन्दू ही गिना जाएगा, न कि जैन. यह इतनी साधी बात है लेकिन कई जैनियों के ध्यान में नहीं आती.

मैंने देखा है कि सरनेम जैन लगाने के आग्रही लोग धर्म के कॉलम में जैन लिखना चाहिए इस बात के आग्रही नहीं होते हैं.

यही कारण है कि मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तरी राजस्थान, दिल्ली आदि प्रदेशों में सरनेम जैन वालों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद जनगणना रिपोर्ट में जैनियों की संख्या कम दिखाई देती है, जब कि दक्षिणी राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि प्रदेशों में ज्यादातर लोग जैन सरनेम लगाना पसंद नहीं करते, फिर भी जनगणना रिपोर्ट में इन प्रदेशों में जैनियों की संख्या ज्यादा दिखाई देती है. कारण साफ़ है, इन प्रदेशों के लोग जनगणना के समय धर्म के कॉलम में जैन लिखने के आग्रही होते हैं.

जैन सरनेम और जैन एकता

दूसरी बात यह है कि सरनेम जैन लिखने का और जैन एकता का कोई सम्बन्ध नहीं है. अगर वैसा होता, तो सरनेम जैन लगाने वाले दिगंबर और सरनेम जैन लगाने वाले श्वेताम्बर, बीसपंथी और तेरापंथी एक हो जाते थे. लेकिन आप जानते ही है कि उनके सम्बन्ध कितने मधुर है!

जैन एकता में मुख्य बाधा संप्रदायवाद है. क्या जैन सरनेम लगाने से सम्प्रदायवाद मिट जाएगा? क्या मिट गया है? और क्या दिगंबर और श्वेतांबर, बीसपंथी और तेरापंथी, श्वेताम्बर और स्थानकवासी केवल जैन सरनेम के कारण एकसाथ खड़े होंगे?

सरनेम जैन लगाने की प्रथा

आपको यह भी जान लेना चाहिए कि सरनेम जैन लगाने की ‘प्रथा’ ज्यादा पुरानी नहीं है. पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में उत्तर भारत में यह प्रथा शुरू हो गयी. फिर इन सरनेम जैन वालों के कई परिवारों के अगली पीढियों में जैन धर्म ही नहीं रहा, वह वैष्णव बन गए. इसी कारण उत्तर भारत में कई ऐसे भी परिवार है जिनका सरनेम तो जैन है लेकिन यह लोग अजैन हैं.

मैंने ढेर सारे ऐसे लोग देखे है, जो अपने नाम के आगे जैन सरनेम लगा तो देते हैं, लेकिन उन्हें जैन धर्म से न कोई लेना देना है, और न ही कोई अपनापन.

डेढ सौ साल पहले किसी भी जैन परिवार का सरनेम जैन नहीं था. आज जो लोग अपना सरनेम जैन लिखते है, उनको अपने परदादा का सरनेम क्या था इसकी खोज करनी चाहिए, और इस बात पर भी गौर करना चाहिए की आपके परदादा सरनेम जैन न होते हुए भी एक अच्छे जैन थे.

जैन सरनेम : एक समस्या

गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में सरनेम जैन लगाना व्यावहारिक नहीं है. गुजरात में तो जैन धर्म एक जनधर्म (Religion of masses) है. यहां बड़ी संख्या में अजैन लोग भी जैन धर्म का पालन करते हैं. महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक में तो कई ऐसे गांव हैं जहां जैनियों के सैंकड़ो परिवार रहते है. अगर सब लोग जैन सरनेम लगाने लगे तो बड़ा घोटाला हो जाएगा. सब सिस्टिम गडबडा जायेगी.

सरनेम अपने पारिवारिक कुल की पहचान होती है और होनी चाहिए, न कि धर्म की पहचान. केवल जैन सरनेम लगाने से आप जैन नहीं बनते. आपके जैनत्व की पहचान आपके आचरण से होती है और होनी चाहिए.

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि सरनेम जैन लगाने से आप आपके क्षेत्र के अन्य स्थानीय लोगों से अलग-थलग पड जाते है.

दक्षिण कर्नाटक, तमिल नाडु, केरल आदि प्रदेशों में ज्यादातर लोगों में सरनेम नाम की कोई चीज ही नहीं होती. इसलिए वहां के स्थानीय जैन समाज में जैन सरनेम का कोई काम ही नहीं है.

क्या होगा अगर इन सबका सरनेम जैन हो?

इन नामों से कुछ बोध ले …..

इन नामों से कुछ बोध ले ….. नाम कैसे होने चाहिए ….

एमपी, यूपी की प्रथा: विष्णु शंकर जैन, दुर्गावती जैन, महेश कुमार जैन, शंकर लाल जैन ऐसे…… या जिनेन्द्र संघवी, महावीर शाह, त्रिशला पाटील, शांतिनाथ डोर्ले, शांतिलाल दुगड, धरणेन्द्र आप्पा कलबुर्गी, एस. बी. जिनेन्द्रन (गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्णाटक, तमिलनाडु की प्रथा) ऐसे?

Jain Surname: जैन समाज क्या है वह पहले जानिये

जो लोग सरनेम जैन लगाने का आग्रह करते है उनको बड़ी सोच रखनी चाहिए. उनको जैन समाज क्या है इसका बेसिक अध्ययन करना चाहिये. (पढिये: जैन समाज क्या है? इसका सही स्वरुप जानिये! ). अपनी जाति, संप्रदाय और प्रदेश के बाहर के जैन समाज के बारे में बिना किसी जानकारी के फतवे निकालना एक मुर्खता ही है.

वह लोग अगर सचमुच जैन एकता चाहते है तो उनको सम्प्रदायवाद मिटाने के बारे में सोचना और बोलना चाहिए. अगर वह चाहते है कि जैन धर्म के अनुयायीयों की संख्या बढ़ जाए, उनको जैन धर्म के दरवाजे अजैन लोगों के लिए खुले करने की बात और कृति करनी चाहिए. (जैसा कि गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम मध्यप्रदेश, दक्षिण राजस्थान में हो रहा है).

क्या सरनेम जैन के आग्रही लोग असल मुद्दों पर विचार करना चाहेंगे? बड़ी सोच ही जैन समाज की डूबती हुई नैय्या को पूरा डूबने से बचाएगी. छोटी सोच वाला समाज सिकुड़ता ही जाएगा!

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