मुग़ल काल में जैन धर्म और समाज

Mughal Emperor Akbar:

धिरज जैन, दुबई

जैन धर्म दुनिया के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है. यह धर्म अहिंसा (किसी भी जीव को हानि न पहुंचाना), अनेकांतवाद (विभिन्न दृष्टिकोणों का सम्मान करना), स्याद्वाद (सापेक्ष सत्य की मान्यता), और मोक्ष प्राप्ति के लिए आत्मसंयम और त्याग पर आधारित है. जैन धर्म का मूल उद्देश्य न केवल आध्यात्मिक उन्नति है, बल्कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों के माध्यम से समाज में शांति और संतुलन स्थापित करना भी है.

मुग़ल साम्राज्य और जैन समाज

इसवी सन 1526 में बाबर द्वारा मुग़ल साम्राज्य की स्थापना के समय जैन समाज पहले से ही आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध था. वे व्यापारी, बँकर, लेखक और विद्वान के रूप में प्रसिद्ध थे. श्वेतांबर परंपरा के तपागच्छ, खरतरगच्छ, स्थानकवासी और दिगंबर समुदाय इस समय सक्रिय थे. जैन समाज की मुख्य उपस्थिति गुजरात, राजस्थान, मालवा और दक्खन में थी.

मुग़ल काल जैन समाज के लिए मिश्रित अनुभवों का समय था. एक तरफ उन्हें संरक्षण, आर्थिक अवसर और राजनैतिक मान्यता मिली, लेकिन दूसरी तरफ राजनैतिक और सामरिक कारणों से मंदिरों का नाश, मूर्तियों का तोड़फोड़ और धार्मिक कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा. जैन साधु और व्यापारी समुदाय ने अपने आर्थिक और सांस्कृतिक योगदान से जैन धर्म को जीवित रखा और समाज की समृद्धि में योगदान दिया.

बाबर और हुमायूं का कालखंड (1526–1 556)

बाबर (1526–1530)
बाबर ने मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी. बाबर के समय युद्धों और सैन्य अभियान के दौरान जैन मंदिरों और मूर्तियों को नुकसान पहुंचा. 1527 में ग्वालियर किले में जैन मूर्तियां तोड़ी गईं और निर्माण कार्यों में इस्तेमाल की गईं. बाबर के बाबरनामा में इसका विवरण मिलता है. यह धार्मिक द्वेष के कारण नहीं, बल्कि युद्ध और सत्ता स्थापित करने की रणनीति का हिस्सा था.

फिर भी, जैन धार्मिक जीवन जारी रहा. मालवा के दिगंबर नेता यशकीर्ति साहू हेमराज ने स्थानीय राजाओं की मदद से मंदिरों का संचालन किया, साधुओं के जीवन का प्रबंधन किया और धार्मिक कार्यों को बनाए रखा. इस समय जैन समाज ने सीधे संघर्ष से बचकर आर्थिक और सामाजिक नेटवर्क मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किया.

हुमायूं (1530–1540, 1555–1556)
हुमायूं के निर्वासन काल में फारस में रहते हुए उन्होंने सहिष्णुता और विभिन्न धर्मों के प्रति सम्मान सीखा. जैन ग्रंथों के अनुसार, उन्होंने पवित्र स्थलों जैसे शत्रुंजय (पालीताना) को अनुदान दिया. उनके दूसरे कार्यकाल में तपागच्छ साधु अहमदाबाद में सक्रिय हुए और जैन धर्म का प्रचार किया.

हुमायूं के समय जैन समाज ने राजनीतिक संघर्ष से बचने और आर्थिक-सामाजिक नेटवर्क मजबूत करने का महत्व समझा. इस दौरान उन्होंने अपनी आर्थिक और व्यापारिक शक्ति बढ़ाकर धार्मिक कार्यों को सुरक्षित रखा.

अकबर का का कालखंड (1556–1605)

अकबर के समय मुग़ल दरबार में सहिष्णुता, संवाद और संरक्षण का सुवर्ण युग आया.

प्रारंभिक संघर्ष
अकबर ने 1573 में गुजरात जीती, जिससे उन्हें जैन समुदाय की संपत्ति और व्यापार में पहुंच मिली. हालांकि 1567 में चित्तौड़ पर हुए हमले में कई जैन और हिंदू मंदिर नष्ट हुए और 80 से अधिक जैन मूर्तियां तोड़ी गईं. यह राजनैतिक कारणों से हुआ, धार्मिक द्वेष के कारण नहीं.

महासंवाद (1582–1586)
अकबर ने उस समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य हिरविजयसूरी और उनके शिष्यों को फतेहपुर सीकरी दरबार में आमंत्रित किया. उसके अनुसार हिरविजय सूरी और उनके शिष्य साधु 800 मील पैदल चले आए. हिरविजयसूरी ने अकबर को जैन धर्म के अहिंसा, करुणा, संयम और सहिष्णुता के सिद्धांत समझाए. अकबर इससे प्रभावित हुआ; उसने शिकार करना कम कर दिया, और प्राणियों के संरक्षण के आदेश दिए. अकबर ने पर्यूषण उत्सव को चार दिन बढ़ाया तथा बारह दिनों के लिए पशु वध पर रोक लगा दी. इस तरह करुणा और अहिंसा की संस्कृति उनके पूरे साम्राज्य में फैल गई.

ईसवी सन 1583 में अकबर ने हिरविजयसूरी को जगद्गुरु की उपाधि दी. हिरविजयसूरी की शिक्षाएं आगरा, ग्वालियर और आसपास के क्षेत्रों में गहराई तक पहुंचीं, जिसने लोगों को मांसाहार और शराब छोड़ने के लिए प्रेरित किया.

आचार्य हिरविजयसूरी ने अकबर के दरबार में नैतिक चर्चाओं की शुरुआत की और सूर्यपूजा में सुधार किया. अकबर की सुलह-ए-कुल नीति (सभी धर्मों के साथ मेल) पर जैन साधुओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है.

राजनीतिक फरमान
सन 1583 से अकबर ने कई फरमान जारी किए:

  • जैन त्योहारों में पशु हत्या पर रोक
  • यमुना में मछली पकड़ने पर रोक
  • जिजिया कर समाप्त
  • यात्रियों पर शुल्क समाप्त
  • कैदियों को क्षमा और पिंजरे के पक्षियों को मुक्त करना

इस काल में साहू टोडर, जो कि एक जैन थे, आगरा की मुग़ल टंकसाल के सुपर वाइजर थे. साहू टोडर के प्रोत्साहन से उस समय के प्रसिद्ध जैन विद्वान पांडे राजमल्ल ने जम्बूस्वामी चरित्र इस ग्रन्थ की रचना की.

साहू टोडर के सुपुत्र साहू ऋषभदास भी जैन विद्वानों को प्रोत्साहित करते थे.

जहांगीर का काल (1605–1627)

जहांगीर ने शुरू में जैन मांगों को मान्यता दी, जैसे कि त्योहारों में पशु हत्या पर रोक. लेकिन 1612 में साधुओं को शहर छोड़ने का आदेश दिया. 1618 में सिद्धिचंद्र को जबरदस्ती विवाह करने की कोशिश की गई, पर जैन व्यापारी समुदाय के हस्तक्षेप से उसे बचाया गया.

माउंट आबू जैसे मंदिरों को भूमि दी गई, लेकिन कुछ मंदिरों को तोड़ा भी गया. इस समय जैन समाज का आधार मुख्य रूप से व्यापारी समुदाय पर निर्भर रहा.

शाहजहां और औरंगजेब (1628–1707)

शाहजहां (1628–1658)
बादशाह शाहजहां ताजमहल के लिए प्रसिद्ध हैं. शाहजहां ने आगरा के बजाय दिल्ली को मुग़ल साम्राज्य की राजधानी बनाया. उस समय उसने आसपास के जैन व्यापारियों को दिल्ली में बसने के लिए आमंत्रित किया.

यह बादशाह जैन व्यापारी शांतीदास झवेरी से प्रभावित था.

शांतीदास झवेरी ने दिल्ली में ठीक लाल किले के सामने जैन मंदिर का निर्माण किया जो लाल मंदिर के नाम से मशहूर है. वह समाज में होने वाले विवादों को सुलझाते थे और जैन यात्रियों का संरक्षण भी करते थे. शांतिदास जवेरी इतने अमीर थे की ईस्ट इंडिया कंपनी उनसे कर्जा लेती थी. इन आर्थिक और सामाजिक योगदानों से जैन समाज को स्थिरता मिली.

औरंगजेब (1658–1707)
औरंगजेब की कठोर नीतियों से जैन समाज को चुनौती मिली. 1669 में अहमदाबाद के चिंतामणी पार्श्वनाथ मंदिर को तोड़ा गया, लेकिन बाद में पुनर्निर्माण की अनुमति मिली. लगभग 15 मंदिर नष्ट हुए.

वीरजी वोरा औरंगजेब के समय के एक बड़े जैन व्यापारी थे. वीरजी ने सुरत में व्यापार पर प्रभुत्व बनाए रखा. उन्होंने मुगलों के नौसेना अभियानों में आर्थिक मदद मदद की, और जैन समाज की सुरक्षा सुनिश्चित की. फिर भी, जैन व्यापारियों को संरक्षण मिला. औरंगजेब ने कुछ त्योहारों का संरक्षण किया और जैन साधुओं के साथ धार्मिक चर्चा की.

अन्य संघर्ष और संरक्षण
दिल्ली के कुछ पंडितों ने जैनों को नास्तिक बताया, जिसके जवाब में धर्मपरीक्षा जैसे ग्रंथ लिखे गए.

फिर भी, जैन समाज ने उत्सव, कला, शिक्षा और मंदिरों का संरक्षण किया. यूरोपीय यात्रियों ने भी नोट किया कि कठिन समय में भी जैन व्यापारी और साहूकार प्रभावी बने रहे.

जगतसेठ परिवार

मुग़ल कालखंड में बंगाल में एक अमीर जैन परिवार था, जिसे जगतसेठ परिवार के नाम से जाना जाता था. यह परिवार नवाबों को, यहां तक कि ईस्ट इंडिया कंपनी को भी कर्जा देता था. इतना ही नहीं, सत्ता परिवर्तन में भी इनका हाथ होता था. 10वा मुग़ल बादशाह फर्रुख सियार को बादशाह बनने के लिए जगतसेठ माणिक चंद ने आर्थिक मदद की थी. बंगाल के नवाब मुग़ल बादशाह को सालाना रकम भेजने के लिए जगतसेठ परिवार के नेटवर्क का उपयोग करते थे.

जैन समाज का आर्थिक और सांस्कृतिक आधार

सांस्कृतिक योगदान
जैन साधुओं ने मुग़ल दरबार की सांस्कृतिक और बौद्धिक गतिविधियों में भाग लिया. महाभारत का फारसी में अनुवाद करते समय अहिंसा के दृष्टिकोण को शामिल किया. सिद्धिचंद्र जैसे विद्वानों ने अपनी स्मरण शक्ति और लेखन कौशल से दरबार को प्रभावित किया.

अकबर के समय जैन साधुओं ने धर्म, नैतिकता और शासनशास्त्र की चर्चाओं में योगदान देकर जैन मूल्यों को मुग़ल साम्राज्य की नीतियों में शामिल कराया.

व्यापार और वित्त:
मुग़ल काल में जैन समाज ने व्यापार जगत में अच्छा नाम कमाया. इस कालखंड में कमसे कम 6 ऐसे जैन व्यापारी हो गए जो भारत के सबसे ज्यादा अमीर व्यापारी थे. इन जैन व्यापारी घरानों ने मुग़ल साम्राज्य को आर्थिक आधार दिया.

जैन व्यापारी संगठनों ने हुंडी प्रणाली के माध्यम से भारत भर में, अरब देशों में और यूरोप तक व्यापार किया.

साहित्य:
बनारसीदास (1586–1643) मुग़ल काल के एक श्रीमाल जैन व्यापारी और कवि थे. वे अपनी आत्मकथा ‘अर्धकथानक’ (आधी कहानी) के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसे उन्होंने ब्रजभाषा में लिखा था. ब्रजभाषा हिंदी की एक प्राचीन बोली है, जो मथुरा क्षेत्र से जुड़ी हुई है. यह किसी भारतीय भाषा में लिखी गई पहली आत्मकथा मानी जाती है. बनारसीदास उस समय आगरा में रहते थे और उनकी आयु 55 वर्ष थी. ‘आधी कहानी’ नाम जैन परंपरा से जुड़ा है, जिसमें एक इंसान का पूरा जीवन 110 वर्ष का माना जाता है. बनारसीदास ने में अर्धकथानक में व्यापारी जीवन, दंगे, नुकसान और पुनर्निर्माण का विस्तार से वर्णन किया.

उस समय के प्रसिद्ध जैन विद्वान पांडे राजमल्ल ने जम्बूस्वामी चरित्र इस ग्रन्थ की रचना की.

सामाजिक सुधार:
1620 के दशक में जैनों ने गुजरात में सती प्रथा रोकने का प्रयास किया.

सांस्कृतिक संगम:
मुगलों के प्रभाव से जैन मंदिरों पर गुमट और मंदिरों के भीतर मुग़ल कुम्भी और भित्तिचित्र दिखाई देने लगे. दूसरी और फारसी कविताओं में जैन नैतिक मूल्यों को शामिल किया गया.

मुग़ल बादशाहों पर, विशेष कर बादशाह अकबर पर जैन सिद्धांतो का प्रभाव पड गया था. दूसरी और जैन समाज के व्यक्ति नामों पर मुगलों का प्रभाव पड गया. जैसे फ़तेह चंद, मेहताब चंद आदि. शाह यह सरनेम, जो विशेष कर गुजरात के जैन समाज में पाया जाता है, मूल रूप से एक पर्शियन टायटल है.

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