Vihar: भगवान महावीर के चातुर्मास और विहार

महावीर सांगलीकर

jainway@jainmission

भगवान महावीर के चातुर्मास और विहार

भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे. उनका जन्म ईसा पूर्व 599 में बिहार में वैशाली शहर के निकट हुआ था.

महाजनपद

उस समय उत्तरी और पूर्वी भारत में गंगा नदी की घाटी में छोटे-छोटे गणराज्य थे. उन्हें महाजनपद के नाम से जाना जाता था. उनमें  आठ महाजनपदों का एक समूह था, जो वज्जि संघ नाम से जाना जाता था.  भगवान महावीर के नाना चेटक इस वज्जिसंघ के प्रमुख थे, जबकि पिता सिद्धार्थ विदेह जनपद के प्रमुख थे. चेटक लिच्छवी वंश के थे और सिद्धार्थ ज्ञातृक वंश के थे.

वज्जी संघ दक्षिण में गंगा से, उत्तर में हिमालय से, पश्चिम में मल्ल और कोशल महाजन पदों से और पूर्व में कोशी और महानंदा नदियों से घिरा हुआ था. वज्जि संघ और लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी. 

गृहत्याग

जब भगवान महावीर 28 वर्ष के थे तब उनके माता-पिता का देहांत हो गया. उसके बाद 30 साल की उम्र में भगवान महावीर ने घर छोड़ दिया. उन्होंने अगले 12 वर्षों तक तपस्या और साधना की. उसके अगले 30 वर्षों तक उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न भागों में विहार किया और लोगों को उपदेश देते रहें.  हमें विभिन्न प्राचीन जैन और बौद्ध ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि भगवान महावीर ने 12 वर्षों की साधना और 30 वर्षों के उपदेश के कुल 42 वर्षों के दौरान कहां-कहां विहार किया था और अपने वर्षावास (चातुर्मास) किये थे. 

गृहत्याग के बाद भगवान महावीर वैशाली के उपनगर कर्मारग्राम में आये. यह लुहारों और मजदूरों का गांव था. कर्मारग्राम में भगवान महावीर ने एक लुहार की कर्मशाला (कारखाना) में निवास किया. 

साधना काल

साधना के बारह वर्षों में भगवान महावीर एक ही गांव में ज्यादा दिनों तक नहीं रुकते थे. वह अलग-अलग  प्रदेशों में विहार करते रहें. कभी बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में, तो कभी मगध प्रदेश में, कभी आज के उत्तर प्रदेश में, तो कभी वैशाली के आसपास. इस काल में वह जंगलों में, उद्यानों में, यक्ष मंदिरों में, चैत्य गृहों में,  किसी की झोपडी में, गांवों में, शहरों में रहते थे. 

साधना के बारह वर्ष पूरे करने के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ.  उसके बाद उन्होंने लोगों को उपदेश करना शुरू किया. अगले 30 वर्ष उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न भागों में विहार कर उपदेश किया. 

भगवान महावीर के चातुर्मास और विहार

साधना और उपदेश के कुल 42 वर्षों में भगवान महावीर केवल वर्षा काल में चार महिने एक ही स्थान पर (गांव आदि) रहते थे. श्रमण परंपरा में इसे वर्षावास या चातुर्मास कहा जाता है. बाकी आठ महिनों में भगवान महावीर सतत विहार करते रहते थे, किसी भी एक स्थान पर तीन दिनों से ज्यादा काल नहीं रुकते थे.

उनका विहार नंगे पांव और पैदल होता था. उन्होंने कभी किसी वाहन का उपयोग नहीं किया. लेकिन नदी पार करने के लिए वह नांव में बैठते थे ऐसे उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में दिखाई देता हैं.

वर्षावास

भगवान महावीर ने कुल 42 वर्षों में 13  अलग-अलग स्थानों पर वर्षाकाल बिताया. सबसे ज्यादा 11 वर्षावास मगध की राजधानी राजगृही में हुये. राजगृही के अलावा  वैशाली में भगवान महावीर ने 6 वर्षावास किया.  विदेह जनपद की राजधानी मिथिला में भी 6 बार वर्षावास किया. यह मिथिला आज के नेपाल में है और आज उसे जनकपुर  नाम से जाना जाता है. 

वैशाली के निकट वाणिज्यग्राम में भगवान महावीर के 6 वर्षावास हुए, जब कि  नालंदा में 3,  चंपा व  भद्दियानगर में 2-2  और 6 अन्य स्थानों पर एक-एक वर्षावास हो गया. 

ऐसा दिखाई देता है की भगवान  महावीर ने अधिकतर वर्षाकाल मुख्य रूप से बिहार और आसपास बितायें. लेकिन उन्होंने इससे विस्तृत प्रदेशों में  विहार किया था. साधना के ग्यारहवें वर्ष में उन्होंने उत्तर प्रदेश के वाराणसी, श्रावस्ती और कौशांबी इन नगरों को भेंट दी थी, और उसके बाद भी कई बार उत्तर प्रदेश के कई नगरों में विहार किया था. प्राचीन जैन साहित्य में भगवान महावीर ने उत्तर प्रदेश के जिन नगरों में विहार किया उनका उल्लेख मिलता है. उन नगरों के नाम है  अहिछत्रा, काकंदी, कांपिल्य, कौशल जनपद, हस्तिनापूर, कौशल-पांचाल, साकेत, काशी जनपद, सुरसेन जनपद, शौरीपूर, मथुरा आदि. 

इससे पता चलता है कि भगवान महावीर का विहार आज के उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में नेपाल तक हुआ था. 

अनुयायी

इस पूरे काल में  लाखों की संख्या में लोग भगवान महावीर के अनुयायी बन गये.  उनके अनुयायियों में विभिन्न जनपदों के प्रमुख, विभिन्न राज्यों के राजा, विद्वान, ब्राह्मण, श्रेष्ठी आदि थे.

भगवान महावीर के पहले 11 शिष्य विद्वान ब्राह्मण थे जिनमें इंद्रभूति गौतम प्रमुख थे. बाद में वह भगवान महावीर के मुख्य गणधर बन गये.  

इनके अलावा समाज के सभी स्तर के लोग भगवान महावीर के अनुयायी बन गये. जैन और बौद्ध साहित्य में उल्लेखित घटनाओं और उल्लेखों से पता चलता है की भगवान महावीर के प्रसिद्ध अनुयायीयों में कुम्हार, लुहार, मातंग, चांडाल जैसे समाज के विभिन्न घटकों के लोग थे. 

मगध सम्राट श्रेणिक बिम्बिसार और उसकी रानी चेलना यह दोनों भगवान महावीर के परम अनुयायी थे. 

भगवान महावीर के चातुर्मास और विहार

निर्वाण

मल्लों के दो महाजन पदों से एक की राजधानी का नाम पावा था.  इ.स. पूर्व  527 में भगवान महावीर का इसी स्थान पर कार्तिक अमावस्या के तडके भगवान महावीर का निर्वाण हो गया. उनके अन्त्य संस्कार के लिए मल्ल, लिच्छवि, काशी, कौशल आदि 14 जनपदों के प्रमुख आये थे. इस प्रसंग पर इन प्रमुखों ने निर्णय लिया की भगवान महावीर के निर्वाण का यह दिन हर वर्ष कार्तिक अमावस के दिन दीप जलाकर मनाया जाय. इस प्रकार से दिवाली का त्यौहार शुरू हो गया. कल्पसूत्र इस प्राचीन जैन ग्रन्थ में इस घटना का उल्लेख किया गया है. यह दिवाली के बारे में सबसे प्राचीन उल्लेख है. 

42 वर्षों में भगवान महावीर ने जो पैदल विहार किया, जो अंतर पार किया वह लाखो किलो मीटर का था. आज भी कई जैन साधू अपने जीवन में पैदल चलकर लाखों किलोमीटर्स का अंतर पार करते हैं, लेकिन भगवान महावीर के काल में ऐसा करना मुश्किल ही था, क्यों की उस काल में भारत में घने जंगल थे, जंगली पशुओं का मुक्त विचरण था और निर्जन प्रदेश भी बडी संख्या में थे. 

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