
चित्तरंजन
(इस लेख में दी गई हर एक घटना सच्ची है. यह मेरा अपना अनुभव है. ऐसी घटनाएं आपके इर्द-गिर्द भी होती रहती हैं, इस बात को मैं जानता हूं.)
पहले मैं भी दूसरों की तरह मंदिर जाता था. लेकिन रोज नहीं, बल्कि जब मन करे और समय मिले तभी. मंदिर जाने से धर्म का पालन होता है ऐसा मैंने कभी नहीं माना. फिर भी खास मौकों पर मैं मंदिर जाया करता था, जैसे महावीर जयंती, पर्युषण पर्व या मंदिर में किसी जैन मुनि के आने पर.
लेकिन अब मैंने मंदिर जाना पूरी तरह से बंद कर दिया है.
इसके कई कारण हैं. जैसे जब मैं मंदिर में कभी-कभार जाता था तो वहां के कुछ लोग मुझे शक की नजर से निहारते, जैसे कोई चोर आया हो. कुछ लोग मेरी पॅन्ट के ऊपर का बेल्ट देखकर उसे उतारने का हुक्म देते. मैं पूछता, क्यों? कहते, चमड़े का बेल्ट यहां नहीं चलता. मैं कहता, लेकिन यह चमड़े का नहीं, रबर का है. तो कहते, फिर भी उतारो.
मैं सोचता था, ये लोग श्रावक नहीं, बल्कि वॉचडॉग हैं.
तभी कोई पहचानवाला आ जाता था और कहता था, अरे चित्तरंजन जी, आप कब आए? आपका लेख पढ़ा, आपने समाज का बहुत बड़ा काम किया है. फिर वह मेरी पहचान उन वॉचडॉगों से करा देता था. फिर उन वॉचडॉगों का मेरी तरफ देखने का नजरिया बदल जाता था. वे दूसरे किसी बकरे की तलाश में दरवाजे की ओर चले जाते थे.
और एक बार मंदिर गया तो वहां ट्रस्टियों के दो गुटों में जोर का झगड़ा चल रहा था. हाथापाई भी हो गई. बाद में पुलिस आई और सबको पुलिस थाने ले गई.
इस मंदिर में दूसरे मंदिरों की तरह हमेशा ऐसे झगड़े होते रहते हैं. ट्रस्टियों का ट्रस्टियों से, मुनियों का ट्रस्टियों से और मुनियों का मुनियों से. वजह होती है पैसा.
एक बार मुझे मंदिर के अध्यक्ष का फोन आया. वह मेरे बचपन का दोस्त, रिश्तेदार और क्लासमेट भी है. कहने लगा, तुम मंदिर नहीं आते. आया करो. अपने लोगों की संख्या ज्यादा दिखनी चाहिए, नहीं तो मंदिर हमारे हाथ से चला जाएगा xx वालों के हाथ में. आप जान ही गए होंगे कि यहां भी अमुकवाल, तमुकवाल, ये, वो ऐसे कई जातीय गुट हैं. इन सबका उद्देश्य किसी भी तरह मंदिर को पूरी तरह से अपनी जाति के कब्जे में लेना है.
मंदिर में कई बार चोरी होती है. एक बार पुजारी ने ही चोरी की. पकड़ा गया. उसे निकाल दिया गया, लेकिन फिर से रखा गया. आजकल पुजारी मिलते ही नहीं. और उसे फिर से रखना जरूरी भी था ट्रस्टियों के लिये, क्योंकि वह ट्रस्टियों के कई राज जानता था.
खैर, इनसे भी भयानक घटनाएं मंदिरों में होती हुई मैंने देखी और सुनी हैं, लेकिन उनका उल्लेख यहां करने से अंधभक्तों को बडी ठेंस पहुंचाएंगा.
लेकिन एक घटना ने मुझे मजबूर कर दिया कि अब बस हो गया. जिंदगी चली जाएगी लेकिन मंदिर जाने से कुछ फायदा नहीं होगा. वहां जाकर मैं भी उनके जैसा बन जाऊंगा.
मेरे घर के ही सामने, रास्ते की दूसरी ओर एक जैन मंदिर है. वह किस जैन संप्रदाय से संबंधित है यह बात मैं नहीं बताऊंगा. मुझे किसी संप्रदाय से कोई लेना-देना नहीं है. मैंने पाया है कि सभी संप्रदायों के अनुयायी अनेक बातों में एक जैसे ही हैं. खैर, उस मंदिर में दूसरे दिन से प्रतिष्ठा का कार्यक्रम होने वाला था. इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए मुझे भी खास रूप से बुलाया गया था.
लेकिन कार्यक्रम से पहले मुंबई शहर पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया. उस भयानक हादसे में कई लोग मारे जा रहे थे. उस रात भी और दूसरे-तीसरे दिन भी. कई पुलिसकर्मियों और सैनिकों ने अपनी जान देकर लोगों की जान बचाई. मुंबई से 180 कि.मी. दूर हमारे शहर में भी लोग आतंकवाद की छांव में थे. लोगों के चेहरों पर डर, गुस्सा, असहायता जैसी कई भावनाएं झलक रही थीं.
लेकिन उसी समय सामने वाले जैन मंदिर में प्रतिष्ठा की तैयारी जोर-शोर से चल रही थी. हम कुछ लोगों ने उस मंदिर में विराजमान साधु से इस बारे में बात भी की. लेकिन उसने कहा, यह कार्यक्रम रद्द नहीं हो सकता, ना ही इसे पोस्टपोन किया जा सकता है. लाखों रुपये खर्च हो चुके हैं. कार्यक्रम रद्द करने से हमारा बड़ा घाटा हो जाएगा. और फिर उस हमले का कार्यक्रम रद्द करने से क्या संबंध है? इस शहर पर हमला होता तो अलग बात थी. वहां उपस्थित सेठों-साहुकारों ने भी यही कहा.
हम निराश होकर वापस आ गए.
मैं एक एनजीओ का काम देखता हूं. हमारे शहर के जो लोग उस काल में मुंबई गए थे, और जिनके रिश्तेदार मुंबई में थे उनका पता लगाने का काम हमारी संस्था ने शुरू कर दिया था. पता चला कि यहां के 7 लोग सीएसटी स्टेशन पर आतंकवादियों के हमले में मारे गए थे. 25 लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे. कई लोगों का पता नहीं चला.
उधर लोग मर रहे थे और इधर यह मंदिर वाले जोर-शोर से फिल्मी धुनों पर धार्मिक गीत गा रहे थे. उन्होंने एक जुलूस भी निकाला. इस जुलूस में जैन युवक, युवतियां और महिलाएं नाच रही थीं. मैं यह बड़े दुख के साथ देख रहा था. तभी एक दोस्त ने मुझे देखा और जबरदस्ती मुझे खींचकर जुलूस की ओर ले जाने लगा. मैंने उसे जोर से धकेल दिया और चिल्लाया, तुम लोग जैन धर्म के दुश्मन हो. लेकिन बैंडबाजे की आवाज के सामने मेरी आवाज किसी के कानों तक नहीं पहुंची. वे लोग अपनी ही मस्ती में चूर थे.
उस दिन से आज तक मैं किसी मंदिर में गया नहीं. आगे भी कभी नहीं जाऊंगा. मैं नहीं चाहता कि मैं भी उनके जैसा बनूं. वैसे भी मंदिर जाना जैन धर्म में जरूरी बात नहीं है. अगर यह जरूरी बात होती, तो जैन धर्म में मंदिर और मूर्तिपूजा को न मानने वाले सम्प्रदाय नहीं होते.
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