नितिन जैन (पलवल, हरियाणा)
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मोक्ष की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले सुन लो. तुम आज भी दिगंबर–श्वेताम्बर के नाम पर बंटे हुए हो, संप्रदाय के नाम पर एक-दूसरे को नीचा दिखाते हो, अपने मत को ऊंचा और दूसरे को हीन मानते हो. तुम्हारे भीतर भेद है, अहंकार है, श्रेष्ठता का नशा है. फिर किस मुंह से मोक्ष की बातें करते हो? किस आधार पर कहते हो कि तुम जन्म–मरण के चक्र से मुक्त होना चाहते हो, जबकि अभी तक तुम “मैं सही हूं, तू गलत है” के रोग से ही मुक्त नहीं हो सके?
राग–द्वेष ही बंधन का मूल कारण है
जैन दर्शन स्पष्ट कहता है कि राग–द्वेष ही बंधन का मूल कारण है. अब ईमानदारी से खुद से पूछो—दिगंबर और श्वेताम्बर का यह झगड़ा क्या राग–द्वेष नहीं है? अपने ही जैसे साधु, अपने ही जैसे श्रावक को सिर्फ वस्त्र, परंपरा या आचार की भिन्नता के कारण छोटा समझना क्या घोर मिथ्यात्व नहीं है? अगर तुम्हारा अहंकार यह मानने को तैयार ही नहीं कि सत्य अनेकांतात्मक है, तो मोक्ष तुम्हारे लिए केवल भाषण का विषय है, जीवन का लक्ष्य नहीं.
तुम कहते हो आत्मा शुद्ध है, आत्मा सम है, आत्मा सबमें एक-सी है, लेकिन व्यवहार में तुम्हारी आत्मा संप्रदाय देखकर बदल जाती है. सामने वाला दिगंबर है तो सम्मान, श्वेताम्बर है तो संदेह; या श्वेताम्बर है तो अपनापन, दिगंबर है तो दूरी. यह कैसी साधना है? यह कैसी अध्यात्मिकता है? यह तो सीधा-सीधा कपट है—और कपट के साथ मोक्ष की बातें करना आत्म-प्रवंचना नहीं तो और क्या है?
भेदभाव की आग साधुओं ने लगाई है
और अब वह कड़वा सच सुन लो जिसे कोई कहना नहीं चाहता—इस भेदभाव की आग साधुओं ने सबसे ज़्यादा लगाई है. हां, वही साधु जो मंचों से वैराग्य, समता और अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं, व्यवहार में वही संप्रदाय की दीवारें और ऊंची करते हैं. प्रवचनों में अप्रत्यक्ष तीर, कथाओं में ज़हर, इशारों में घृणा और मौन में समर्थन—यही आज का सच है. साधु यदि चाहें तो यह आग एक दिन में बुझ सकती है, लेकिन जब उसी आग से उनकी दुकानें, उनका प्रभाव और उनकी सत्ता चल रही हो, तो वे इसे बुझाएं क्यों?
आज साधुओं ने मोक्ष को भी संप्रदाय की बपौती बना दिया है. अपने पंथ में मोक्ष सरल, दूसरे में संदिग्ध. अपने साधु सच्चे, दूसरे दिखावटी. अपने ग्रंथ प्रमाण, दूसरे संशयास्पद. यह शिक्षा किस आगम में लिखी है? यह अहिंसा है या वैचारिक हिंसा? जिस साधु के भीतर समता नहीं, वह वेश से चाहे नग्न हो या वस्त्रधारी, आत्मा से अभी बहुत वस्त्र ओढ़े हुए है.
श्रावक तो वही सीखेगा जो साधु सिखाएंगे. जब गुरु ही भेद बोएगा, तो शिष्य समता कैसे काटेगा? आज समाज में जो ज़हर फैला है, वह अपने आप नहीं फैला—उसे वर्षों के प्रवचनों, संकेतों और पक्षपात ने सींचा है. फिर वही साधु मोक्ष की बात करते हैं, वैराग्य की बात करते हैं, और कहते हैं समाज बिगड़ गया. समाज नहीं बिगड़ा, समाज को बिगाड़ा गया है.
सच यह है कि आज मोक्ष का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग वही लोग कर रहे हैं जो अपने भीतर की गंदगी को ढकने के लिए “उच्च सिद्धांतों” की चादर ओढ़ लेते हैं. मंच से मोक्ष, प्रवचन में मोक्ष, लेखों में मोक्ष, लेकिन व्यवहार में सिर्फ पद, प्रतिष्ठा, अनुयायी और प्रभुत्व. जो व्यक्ति अपने संप्रदाय के अहंकार से नीचे उतर नहीं सकता, वह सिद्धशिला की ऊंचाई का सपना कैसे देख सकता है?
पहले सम्यक दृष्टि बनो
जैन आगम यह नहीं कहते कि पहले दिगंबर बनो या श्वेताम्बर बनो, वे कहते हैं पहले सम्यक दृष्टि बनो. और सम्यक दृष्टि वहां मर जाती है जहां “हम श्रेष्ठ हैं” का विष जीवित रहता है. जब तक तुम्हारे भीतर यह भाव है कि “मेरी परंपरा ऊंची है”, तब तक तुम आत्मा नहीं, केवल लेबल की पूजा कर रहे हो. और लेबल की पूजा करने वाले लोग मोक्ष नहीं, अगला विवाद ही कमाते हैं.
इसलिए मोक्ष की बातें करने वालों, और विशेषकर साधु कहलाने वालों, पहले खुद से ईमानदार बनो. पहले भेद छोड़ो, पहले अहंकार त्यागो, पहले अपने ही जैसे साधक को सम्मान देना सीखो. जब तक तुम्हारे मन से दिगंबर–श्वेताम्बर का ज़हर नहीं निकलेगा, तब तक तुम्हारी सारी मोक्ष-चर्चाएं खोखली, झूठी और पाखंड से भरी रहेंगी. मोक्ष कोई नारा नहीं, मोक्ष तो अहंकार की मृत्यु है—और आज का कड़वा सत्य यह है कि इस अहंकार को ज़िंदा रखने में सबसे बड़ा योगदान साधुओं का ही रहा है.
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नितिन जैन जैन तीर्थ श्री पार्श्व पद्मावती धाम, पलवल (हरियाणा) के संयोजक है.
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