डॉ धिरज जैन, दुबई
पिछले कुछ वर्षों में विगनिज़्म को एक आधुनिक, नैतिक और पर्यावरण–हितैषी जीवनशैली के रूप में तेज़ी से प्रचारित किया गया है. सोशल मीडिया, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और शहरी बौद्धिक वर्ग इसे भविष्य का आदर्श आहार बताने लगे हैं. लेकिन जब इसी विचारधारा को भारतीय संदर्भ में, विशेषकर भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वास्तविकताओं के साथ जोड़कर देखा जाता है, तो यह केवल एक निजी आहार विकल्प नहीं रह जाती, बल्कि एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक प्रश्न बन जाती है.
भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़: पशुपालन और कृषि
भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बुनियाद कृषि और पशुपालन पर टिकी हुई है. देश की अधिकांश ग्रामीण आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गाय, भैंस, बैल, बकरी जैसे पशुओं से जुड़ी हुई है. भारतीय किसान के लिए पशु कोई मशीन या उत्पादन इकाई नहीं, बल्कि परिवार का सदस्य होता है. दूध, दही, घी, छाछ जैसे दुग्ध उत्पाद न केवल पोषण का साधन हैं, बल्कि रोज़मर्रा की नकद आय का सबसे भरोसेमंद स्रोत भी हैं. खेतों में बैल आज भी कई क्षेत्रों में किसान का सबसे बड़ा सहायक है, वहीं गोबर और गौमूत्र प्राकृतिक खेती, जैविक खाद और ग्रामीण ईंधन का आधार हैं. इस पूरे तंत्र के बिना भारतीय ग्रामीण जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती.
विगनिज़्म का मूल आग्रह है कि पशुओं से जुड़े किसी भी उत्पाद का उपयोग नैतिक रूप से गलत है. दूध और दुग्ध उत्पादों को भी इसमें शोषण का प्रतीक बताया जाता है. यह सोच मुख्यतः पश्चिमी औद्योगिक समाजों से आई है, जहां पशुपालन बड़े–बड़े कॉर्पोरेट फार्मों में होता है और पशु वास्तव में केवल उत्पादन की वस्तु बनकर रह जाते हैं. लेकिन भारत में पशुपालन का स्वरूप इससे बिल्कुल भिन्न है. यहां पशु और मनुष्य के बीच सहजीवन की परंपरा रही है. किसान पशु से दूध लेता है, लेकिन बदले में उसकी पूरी ज़िंदगी की देखभाल भी करता है. इस वास्तविकता को नज़रअंदाज़ करके विगनिज़्म को सार्वभौमिक नैतिक नियम की तरह प्रस्तुत करना भारतीय समाज के साथ अन्याय है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर संभावित विनाशकारी प्रभाव
यदि भारत में विगनिज़्म को बड़े पैमाने पर सामाजिक आंदोलन या नीति के रूप में अपनाया गया, तो इसका सीधा और गहरा प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. दुग्ध उद्योग, जो आज करोड़ों छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका का आधार है, धीरे–धीरे समाप्त हो जाएगा. दूध बेचकर जो किसान अपने बच्चों की पढ़ाई, स्वास्थ्य और घरेलू ज़रूरतें पूरी करता है, वह अचानक आय के स्रोत से वंचित हो जाएगा. इससे ग्रामीण बेरोज़गारी बढ़ेगी और शहरों की ओर मजबूर पलायन तेज़ होगा, जिसका बोझ पहले से ही जूझ रहे शहरी ढांचे पर पड़ेगा.
इसके साथ ही प्राकृतिक और जैविक खेती की पूरी परंपरा भी संकट में आ जाएगी. गोबर आधारित खाद और स्थानीय संसाधनों पर आधारित खेती की जगह रासायनिक खाद और महंगे इनपुट्स का उपयोग बढ़ेगा. इससे न केवल खेती की लागत बढ़ेगी, बल्कि मिट्टी की उर्वरता, पर्यावरण संतुलन और किसानों की आत्मनिर्भरता भी प्रभावित होगी. विगनिज़्म का यह पहलू अक्सर उसके समर्थकों द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है.
विगनिज़्म और कॉर्पोरेट हितों का गठजोड़
एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि विगनिज़्म के प्रचार के पीछे कॉर्पोरेट हित भी स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं. प्लांट–बेस्ड प्रोसेस्ड फूड, सोया और बादाम जैसे आयातित विकल्प, लैब में तैयार किए गए कृत्रिम उत्पाद—इन सबको स्वास्थ्य और पर्यावरण के नाम पर बढ़ावा दिया जा रहा है. इन उत्पादों से लाभ भारतीय किसान को नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होता है. यदि पारंपरिक पशुपालन और ग्रामीण उत्पादन व्यवस्था कमजोर होती है, तो भारत की खाद्य प्रणाली धीरे–धीरे कॉर्पोरेट और आयात–निर्भर बनती चली जाएगी.
भारतीय परंपरा: संतुलन और मध्यम मार्ग
भारतीय परंपरा का मूल स्वभाव अति नहीं, बल्कि मध्यम मार्ग है. यहां त्याग और उपभोग, करुणा और व्यवहारिक जीवन—दोनों के बीच संतुलन सिखाया गया है. इसी संतुलन ने भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था और समाज को सदियों तक टिकाए रखा है.
विगनिज़्म पशु–करुणा की बात करता है, लेकिन उसकी नैतिकता अक्सर चयनात्मक दिखाई देती है. वह पशुओं की पीड़ा पर तो संवेदनशील है, पर करोड़ों ग्रामीण परिवारों की आजीविका, उनकी संस्कृति और उनके जीवन–मूल्यों पर चुप्पी साध लेता है. भारतीय समाज में दूध और दुग्ध उत्पाद सदियों से सात्त्विक, संतुलित और पोषणपूर्ण आहार का हिस्सा रहे हैं. आयुर्वेद, योग, जैन, बौद्ध और वैदिक परंपराओं ने कभी भी इस संतुलन को हिंसक या अनैतिक नहीं माना.
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विगनिज़्म को यदि व्यक्तिगत पसंद के रूप में अपनाया जाए, तो वह किसी का निजी अधिकार है. लेकिन जब उसे नैतिक श्रेष्ठता का दर्जा देकर पूरे समाज पर थोपने की कोशिश की जाती है, तब वह भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था, पशुपालन परंपरा और आत्मनिर्भर जीवन–पद्धति के लिए एक गंभीर खतरा बन जाता है. इस संदर्भ में विगनिज़्म केवल एक आहार आंदोलन नहीं, बल्कि भारतीय ग्रामीण ढांचे को कमजोर करने वाली एक वैचारिक साजिश जैसा प्रतीत होता है.
भारत को आवश्यकता है अपने पारंपरिक, स्थानीय और संतुलित मॉडल को समझने और सहेजने की. विदेशी अवधारणाओं को अपनाने से पहले यह देखना ज़रूरी है कि वे हमारे समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर क्या प्रभाव डालती हैं. क्योंकि भोजन केवल थाली का प्रश्न नहीं होता, वह पूरे समाज की दिशा और दशा तय करता है.
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