महावीर सांगलीकर
जैन धर्म के बारे में फैलाया गया सबसे बड़ा झूठ: सदियों से एक बात बार-बार कही जाती है कि “जैन धर्म की उत्पत्ति वैदिक धर्म में होने वाली हिंसा—विशेषकर यज्ञों में पशुबली—के विरोध में हुई.” यह धारणा कुछ इतिहासकारों और लेखकों ने बिना गहराई से अध्ययन किए लिखी और धीरे-धीरे यह मान्यता बन गई कि यह इतिहास का ‘स्वीकार्य सत्य’ है.
लेकिन गंभीर अध्ययन, पुरातत्व, भाषावैज्ञानिक शोध, और भारत की वैदिक–पूर्व आध्यात्मिक परंपराएं यह बताती हैं कि यह दावा सिर्फ गलत ही नहीं, बल्कि भ्रामक और जैन धर्म के मूल स्वरूप को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने वाला है. जैन धर्म का अस्तित्व वैदिक संस्कृति से बहुत पहले से था, और यह भारत की प्राचीनतम श्रद्धा-परंपरा है—जिसका मुख्य लक्ष्य आत्मा की शुद्धि, कर्मों से मुक्ति और सर्वव्यापक अहिंसा है, न कि किसी विशेष समुदाय या धर्म का विरोध.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं की जैन धर्म ने वैदिक हिंसा का समर्थन किया. वैदिक हिंसा का विरोध करना अलग बात है, और उसका विरोध करने के लिए किसी धर्म का उदय होना अलग बात है.
वैदिक धर्म के आने से पहले जैन धर्म का अस्तित्व
सिंधु घाटी सभ्यता में जैन तत्वों की उपस्थिति
सिंधु–सरस्वती (हड़प्पा) सभ्यता से प्राप्त मूर्तियां, चिन्ह, मुहरें और नगरीय संरचनाएं यह संकेत देती हैं कि वहां की संस्कृति अहिंसक, शांतिप्रिय, व्यापार-केंद्रित, और ध्यान/योग को महत्त्व देने वाली थी. यह चारों तत्व जैन परंपरा के मूल अंग हैं.
योगमुद्रा में ‘ऋषभ’ का चित्र
मोहनजोदड़ो से मिली एक मुहर पर जो योगी जैसी आकृति है, वह ध्यान में बैठी है, चारों ओर पशु हैं, और मुद्रा जैन शास्त्रों के “पद्मासन–ध्यान मुद्रा” से मिलती है. जॉन मार्शल जैसे कई पुरातत्त्वविद और विद्वान इस आकृति को जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का प्रतीक मानते हैं.

इस मुद्रा की विशेषता देखिये. इसके निचले हिस्से में प्राणियों के चित्र उकेरे गए है. यह प्रथा आज भी जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों में लांछन के रूप में देखि जाती है. यह लांछन विशेषकर प्राणियों के ही होते हैं.
वास्तव में वैदिक धर्म का जैन धर्म से प्राचीन होने का एक भी पुरातात्विक प्रमाण नहीं है.
अहिंसा-आधारित संस्कृति
हड़प्पा–मोहनजोदड़ो में युद्ध के बड़े हथियार, सेनाएं, दुर्ग-रक्षा तंत्र लगभग नहीं मिले. यह संकेत करता है कि उस सभ्यता का आधार जीवन और व्यापार था, संघर्ष नहीं. जैन धर्म में भी अहिंसा सर्वश्रेष्ठ व्रत है—यह समानता अत्यंत महत्वपूर्ण है.
ऋग्वेद में जैन तीर्थंकरों और श्रमणों के उल्लेख
ऋग्वेद वैदिक साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना गया है. यदि इसी में जैन परंपरा के प्रमुख व्यक्तित्वों का उल्लेख मिलता है, तो यह प्रमाण अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है.
ऋषभ, और अरिष्टनेमि का वर्णन
ऋग्वेद में “ऋषभ” शब्द कई मंत्रों में आया है, और इसका संकेत ऋषभदेव की ओर बताया जाता है.
“नेमि” नाम भी ऋग्वेद में मिलता है, जो जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) से मेल खाता है.
नग्न मुनियों का उल्लेख
ऋग्वेद में उन तपस्वियों का उल्लेख मिलता है जो दीर्घ तपस्या करते थे, नग्न रहते थे, और यज्ञ परंपरा से अलग थे.
यह विवरण जैन दिगंबर मुनियों के स्वरूप से सर्वाधिक मिलता है.
पणि नामक अहिंसक समुदाय
ऋग्वेद में “पणि” नामक समुदाय का वर्णन है. वे अहिंसक व्यापारी थे. वेदों को नहीं मानते थे. कृषक–व्यापारी जीवन शैली अपनाते थे.
आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि यह समुदाय सिंधु सभ्यता और श्रमण परंपरा से जुड़ा था—जिसमें जैन धर्म प्रमुख धारा था.
श्रमण परंपरा वैदिक परंपरा से पुरानी
भारत में दो मुख्य दार्शनिक धाराएं रही हैं.
श्रमण परंपरा—अहिंसा, तप, ध्यान, पुनर्जन्म, कर्मफल, मोक्ष
वैदिक परंपरा—यज्ञ, देवताओं की स्तुति, सामाजिक अनुष्ठान
जैन धर्म श्रमण परंपरा की सबसे प्राचीन शाखा है. इसमें पूजा और कर्मकांड के बजाय साधना, हिंसा की बजाय संयम, देववाद की बजाय आत्मवाद मुख्य है.
24 तीर्थंकरों की परंपरा अनेक कालों में बंटी है, जिनमें पहले कई तीर्थंकर मानव इतिहास की परंपरागत सीमा से भी पूर्व बताए गए हैं.
जैन धर्म का उद्देश्य कभी किसी धर्म का विरोध नहीं रहा
यह भी ध्यान देने योग्य है कि जैन धर्म किसी दूसरे धर्म या परंपरा का विरोध करके कभी अस्तित्व में नहीं आया. इसका जन्म हिंसा-विरोधी आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और मोक्ष हेतु हुआ. जैन धर्म की शिक्षा समता, शांति, सत्य, तप और अहिंसा है.
निष्कर्ष
उपरोक्त सभी ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक और दार्शनिक प्रमाण स्पष्ट रूप से बताते हैं कि—
✔ जैन धर्म वैदिक धर्म से पहले से अस्तित्व में था.
✔ इसका आधार श्रमण परंपरा है, जो वैदिक परंपरा से भी पुरानी है.
✔ यह किसी धर्म का विरोध नहीं, बल्कि स्वतंत्र और अत्यंत प्राचीन धर्म है.
✔ जैन धर्म भारत की आध्यात्मिक धरोहर का मूल स्तंभ है—शांतिप्रिय, अहिंसक और सार्वभौमिक.
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