वनराज चावडा: जैन धर्म के संरक्षक राजा

वनराज चावडा

महावीर सांगलीकर

jainway@gmail.com


राजा वनराज चावडा मध्यकालीन भारत के एक प्रभावशाली शासक थे. वे गुजरात में अन्हिलवाड़ा (आज का पाटन) शहर बसाने और वहां की संस्कृति व धर्म को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं. उनकी हुकूमत 8वीं और 9वीं सदी के दौरान हुई. यह समय गुजरात के लिए बदलाव का दौर था..

राजा वनराज चावडा का प्रारंभिक जीवन और सत्ता तक का सफर

वनराज चावडा का जीवन शुरुआत से ही संघर्षों से भरा था. कई ऐतिहासिक ग्रंथों, जैसे कि कृष्णभट्ट की रत्नमाला और मेरुतुंग की प्रबंध चिंतामणि में उनके जन्म और संघर्षों का जिक्र मिलता है.

एक कथा के अनुसार, उनके पिता जयशेखर, जो पंचसर के राजा थे, को उनके दुश्मन राजा भुवड ने युद्ध में मार दिया. मरने से पहले जयशेखर ने अपनी गर्भवती पत्नी रूपसुंदरी और उसके भाई शूर्पाल को जंगल भेज दिया ताकि वे सुरक्षित रह सकें.

प्रबंध चिंतामणि में एक दिलचस्प किस्सा मिलता है. एक जैन आचार्य, शीलगुणसूरी ने वनराज के बारे में एक दिव्य संकेत देखा और भविष्यवाणी की कि यह बालक साधु बनने के लिए नहीं, बल्कि एक महान राजा बनने के लिए पैदा हुआ है.

पुरातन-प्रबंध-संग्रह में बताया गया है कि एक बार वनराज की मां ने उन्हें एक झूले में रखकर एक पेड़ पर टांग दिया था. तभी एक जैन मुनि ने देखा कि उस पेड़ की छाया झुकी नहीं थी. उन्होंने इसे एक शुभ संकेत माना और भविष्यवाणी की कि यह बालक राजा बनेगा. बाद में मुनि ने वनराज और उनकी मां को एक जैन मंदिर में शरण दी और उनका भविष्य देखा.

अन्हिलवाड़ा की स्थापना

वनराज चावडा ने अपनी राजधानी के रूप में अन्हिलवाड़ा (आज का पाटन) की स्थापना की. माना जाता है कि उन्होंने यह शहर 746 या 765 ईस्वी के आसपास बसाया.

एक लोककथा के अनुसार, वनराज ने यह स्थान तब चुना जब उन्होंने देखा कि एक कुत्ते और खरगोश के बीच लड़ाई हो रही थी और खरगोश ने साहसपूर्वक मुकाबला किया. इसे शक्ति और बहादुरी का संकेत मानते हुए उन्होंने यहीं पर नया नगर बसाने का निश्चय किया.

एक गड़रिया (चरवाहे) अन्हिला के मार्गदर्शन में इस शहर की नींव रखी गई, और इसी कारण इसे अन्हिलवाड़ा नाम दिया गया. यह नगर जल्दी ही व्यापार, संस्कृति और शिक्षा का केंद्र बन गया.

वनराज चावडा और जैन धर्म

राजा वनराज चावडा की जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा बहुत गहरी थी. वे जैन धर्म के बड़े संरक्षक माने जाते हैं. जैन आचार्य शीलगुणसूरी उनके आध्यात्मिक गुरु थे और उन्होंने राजा को कई धार्मिक संस्थानों की स्थापना की सलाह दी.

प्रबंध चिंतामणि के अनुसार, आचार्य शीलगुणसूरी की प्रेरणा से राजा वनराज ने पंचसरा चैत्य (जैन मंदिर) बनवाया. इसमें भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के साथ-साथ स्वयं वनराज की भी मूर्ति एक उपासक के रूप में स्थापित की गई. जैन मुनियों और मठों को दान दिया और जैन धर्म के प्रचार में मदद की. उनके शासनकाल में कई जैन मंदिर और मठ बनाए गए, जो आगे चलकर शिक्षा और आध्यात्मिक ज्ञान के प्रमुख केंद्र बने.

वनराज ने जैन विद्वानों और दार्शनिकों को अपने दरबार में आमंत्रित किया और उन्हें सम्मान दिया. इससे न केवल जैन धर्म की शिक्षा का प्रचार हुआ, बल्कि उस समय की संस्कृति और बौद्धिक विचारधारा को भी बढ़ावा मिला.

विरासत और योगदान

वनराज चावडा का योगदान सिर्फ अन्हिलवाड़ा की स्थापना तक सीमित नहीं था. उन्होंने हिंदू और जैन धर्म दोनों को समान रूप से प्रोत्साहित किया और अपने राज्य में धार्मिक सौहार्द बनाए रखा. उनके शासनकाल में कला, संस्कृति और स्थापत्य में महत्वपूर्ण विकास हुआ.

उनके द्वारा बनवाए गए मंदिर और भवन आज भी उनकी विरासत के प्रमाण हैं. उनके कार्यों से गुजरात में जैन धर्म का प्रसार हुआ और धार्मिक सहिष्णुता की मिसाल कायम हुई.

राजा वनराज चावडा का जीवन संघर्ष, दूरदृष्टि और नेतृत्व का प्रतीक है. कठिन परिस्थितियों में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने न केवल एक महान नगर की स्थापना की बल्कि जैन धर्म और संस्कृति को भी बढ़ावा दिया. वे एक ऐसे राजा थे जिन्होंने धार्मिक सौहार्द को अपनाया और कई परंपराओं को आगे बढ़ाया.

उनकी स्मृति आज भी भारतीय इतिहास में एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में जीवित है.

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